INDIA: भोपाल, मैं और 2 दिसंबर 1984 की 

आज मुझे भी वह अँधेरी सुबह याद आ गयी। 2 और 3 दिसंबर 1984 की दरम्यानी रात, भोपाल के घोडा नक्कास में निवास करते हुए जब हमने भी जहर भरी हवा को लीला था। मैं भोपाल गैस त्रासदी का जिक्र कर रहा हूँ।  दुनिया की सबसे विनाशकारी औद्योगिक त्रासदी; जिसके बारे में आज तक यह सपष्ट नहीं है कि वह एक दुर्घटना थी या गरीबों पर किया गया प्रयोग! हमारे घर की छत से यूनियन कार्बाइड कारखाने को देखा जा सकता था।  उस वक्त मैं 11 साल का था। जिस कुम्हार गली में हम रहते थे उसमे रोने-चीखने की आवाजें आ रही थीं और तभी किसी ने घर का मुख्य दरवाज़ा खोल दिया। ऐसा लगा किसी ने मिर्ची का पावडर आँखों में भर दिया हो। रात एक बजे जब हम एक दुपहिया वाहन पर चार-चार लोग अपने घरों से निकले तब हमने छोटे तालाब में लोगों को गैस की जलन से बचने के लिये कूदते देखा। मंडीदीप तक पंहुचते हुए हमने सड़क पर लोगों को कटे पेड़ की तरह गिरते और दम तौड़ते देखा। लोग अपने सिरों पर अपना सामान रख कर भाग रहे थे, वज़न लेकर चलने के कारण उनकी सांस और तेज़ चल रही थी; यानी वे और ज्यादा जहर अपने फेंफडों में भर रहे थे। लोगों को सामान लेकर इसलिए भागना पड़ा क्योंकि यह अफवाह भी उड़ा दी गयी थी कि भोपाल के किसी कारखाने में आग लग गयी है और अब पूरा शहर जल जाएगा। वे अपना थोडा बहुत सामान बचाना चाहते थे।

हम ढाई बजे रात को मंडीदीप पंहुचे और सुबह 6 बजे वापस आये। जब हम मंडीदीप पंहुच रहे थे तब हमने देखा कि लोग वहां तक पैदल पंहुच रहे हैं। वापस आने पर अपने मोहल्ले में हमने उस सुबह 9 लाशें देखीं। इनमे से 3 बच्चे थे। इसके बाद अपने पिता के साथ मैं हमीदिया अस्पताल गया। हम यह जानना चाहते थे कि आखिर हुआ क्या था? भोपाल का सबसे बड़ा अस्पताल तब तक लाशों से पट चुका था। लाशों के अंतिम संस्कार ले किये ट्रक लग चुके थे। आनन्-फानन में पोस्ट मार्टम हो रहे थे। उस वक एक ईमानदार फोरेंसिक विशेषज्ञ थे- डाक्टर हीरेश चन्द्र। उन्होने इतनी पोस्ट मार्टम किये कि लोगों के शरीर से निकालने वाली गैस ने उन्हे बहुत ज्यादा पीड़ित बना दिया। कहते हैं कि यदि लोगों को पता होता कि कपडा गीला करके मुंह ढंके रहने से इस गैस का प्रभाव बहुत कम हो जाता है, तो इस तकनीक से कई लोगों की जान बच सकती थी; पर यह बताया ही नहीं गया था कि इस कारखाने में कौन सी जहरीली गैस का उपयोग होत है और इसका रिसाव होने पर बचाव के लिये कौन से कदम उठाना चाहिए! अगले दिन सुबह भोपाल शहर का एक समूह गुस्से में यूनियन कार्बाइड की तरफ बढ़ा। वह उसमे आग लगाना चाहता था। तभी ऐतिहात के तौर पर यह अफवाह उड़ा दी गयी कि फिर से गैस रिस गयी है। और लोग उल्टे पैर वापस भागे। इस घटना के अगले दिन यानी 3 दिसम्बर से ही यह बताना शुरू कर दिया गया कि कारखाने में अब भी भारी मात्रा में जहरीली गैस और अन्य पदार्थ हैं।  इसके अब ठिकाने लगाया जाएगा, इसलिए लोगों से लगभग २ हफ़्तों के लिए शहर काहिल करने के लिए कह दिया गया।  खूब हेलीकाप्टर उडाये गए और कुछ किये जाने का प्रपंच रचा गया।  प्रपंच इसलिए क्योंकि जहर तो आज भी इस कारखाने में ही मौजूद है।  इस कारखाने के परिसर में किसी को जाने नहीं दिया जाता है।  वहाँ के टेंक और मशीनें जंग खाकर मिट्टी और पानी से एकाकार हो गयी।  यानी 3 दिसंबर से 16 दिसम्बर 1984 तक जहर हटाने का काम केवल दिखावा था।  और इसके बाद शुरू हुई एक ऐसी प्रक्रिया जिसमे हमें अपनी व्यवस्था से सबसे ज्यादा न-उम्मीद किया। लोगों को उस दिन भी न तो इलाज़ मिला था, न आज मिल पा रह है। मुआवजा देने की प्रक्रिया भी शुरू हुई; वह अपने आप में इतनी भ्रष्ट और अपमानजनक प्रक्रिया थी, मानो यह माना जा रहा हो कि लोग मुआवजा लेकर मुफ्त की लूट कर रहे हों। सरकार यह मानने को तैयार नहीं थी कि कारखाने और सरकार के इस गठजोड़ ने लोगों को जिन्दगी भर के लिये बीमार बना दिया है। लोग साधारण बीमारी का ही इलाज़ नहीं करवा पाते हैं, इन नई बीमारियों का इलाज़ कैसे करवाएंगे। इसका खर्च कितना होगा? एक तरह से यह मान लिया गया था लोग तो मरते रहते हैं; इसमे नया क्या है। और यदि मरने वाले गरीब और झुग्गी वाले हैं तो चिंता की कोई बात ही नहीं है। यह त्रासदी भोपाल की राजनीति की नई बिसात बिछा गयी। भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों ने इस त्रासदी से फायदे का खेल खेला है। यह एक बहुत सटीक उदाहरण है लाशों की राजनीति का; 28 साल में न तो लोगों को इलाज़ मिल पाया, न सही मुआवजा, न इस जहर से मुक्त पीने का पानी, और तो और यूनियन कार्बाइड के जहर भरा 1000 टन कचरा आज भी वहीँ भरा हुआ है। जो आज भी लोगों को मारने का काम कर रहा है। यह जहर हवा में मिल रहा है और रिस रिस कर जमीन के भीतर पानी में जा रहा है। मुआवज़े के बेहद अपमान जनक व्यवस्थाएं बनायी गयी। गैस प्रभावितों को तीन साल तक हर माह 200 रूपए मुआवजे के रूप में दिए जाने की प्रक्रिया तय की गयी। हम हर माह एक तय तारीख को मुआवजा केन्द्रों पर लाइन बना कर खडे होते। 200 रूपए लेने के लिए बच्चे, बुज़ुर्ग, काम वाले और बिना काम वाले पूरा दिन अपनी बारे आने का इंतज़ार करते। 7200 रूपए के लिए हमें 36 दिन लाइन में खडे रहने का दंड दिया गया दंड उस अपराध के लिए जो हमने नहीं किया था। दुनिया में ऐसी कोई दूसरी मिसाल बताईये जहाँ 8 लाख लोग 28 साल से अपने गैस पीड़ित होने के दस्तावेज संभाल कर रखे हुए हैं; क्योंकि अभी तक उन्हे अंतिम मुआवजा नहीं मिला है। हमारे लिए एक अस्पताल बना था। उम्मीद थी की वहां से कम से कम इलाज़ तो मिलेगा ही; उस अस्पताल को भी सरकार बंद करने के लिए आमादा है। उसका निजीकरण किया जाना है ताकि कोई निजी कंपनी धंधा कर सके।

पूरा शहर इस त्रासदी की चपेट में आया।  जहरीली गैस ने यह नहीं देखा कि कौन अमीर है और कौन गरीब; इसके बावजूद भी शहर के लोगों से ताकीद की गयी कि वे साबित करें कि वे इस त्रासदी से प्रभावित हुए थे।  हर बार उन्हे गैस मुआवजा दावा अदालतों में न्यायाधीश के सामने खड़े होना पड़ता था और साबित करना होता था कि वे गैस प्रभावित हैं। यानी पीड़ितों को यह साबित करना होता था कि वे दुर्घटना के शिकार हैं।  और वह भी एक बार नहीं बार बार।

मैं आज तक यह समझ नहीं पाया हूँ कि दुनिया में जब इस तरह की घटनाएं होती हैं तो उन पर खूब शोध होता है और बचाव के रास्ते खोजे जाते हैं। भोपाल गैस त्रासदी के मामले में भारत की सरकारें और वैज्ञानिक निष्पक्ष और ईमानदार शोध से क्यों बचती रही? क्यों अब तक नहीं बताया गया कि इस दुर्घटना का वास्तव में मतलब क्या था? हमारी राजनीति भी इस षड़यंत्र का हिसा बन गयी और राजनीतिक दलों ने भी मांग नहीं की कि इस दुर्घटना के घावों को मिटाने के ईमानदार सामाजिक, राजनीतिक और वैज्ञानिक प्रयास किये जाएँ। इसके ठीक विपरीत उसने डाव केमिकल्स द्वारा प्रायोजित ओलम्पिक खेलों में भाग लेना स्वीकार किया। इसका मतलब है कि उसके लिये लोगों के जीवन से ज्यादा कूटनीति और पूंजीवादी विकास दर महत्वपूर्ण है। उसने बार बार सिद्ध किया है कि वह भोपाल के लोगों के बजाये वारेन एंडरसन के ज्यादा बड़ी हितैषी है। यह एक बड़ा कारण है कि मैं आज सरकारों द्वारा विकास के नाम पर किये जाने वाले निवेश को शंका की दृष्टि से देखता हूँ। मुझे लगता है कि हमारी सरकार जहर का एक और नया कारखाना लगा रही है। वह कारखाना न केवल जमीन, पानी और जंगल जैसे संसाधन लूटेगा; बल्कि हवा के झौंके में मिल कर लाशों के ढेर लगा देगा। इसीलिए मुझे लगता है कि योजना आयोग की वृद्धि दर गरीबों से बलिदान मांगती है। यह वृद्धि दर जितनी बढ़ेगी, उतनी ज्यादा लाशें बिछेंगी। मेरे लिए अपना अनुभव ही मापदंड है यह तय करने का कि निजी क्षेत्र संवैधानिक रूप से जवाबदेय नहीं होता है। वह अपराध करता है, लोगों के हक़ छीनता है, संसाधनों पर कब्ज़ा करता है, लाशें भी बिछा देता है, पर फिर भी उसकी कोई जवाबदेहिता तय नहीं होती। यह जानते हुए कि कोई इसे अवमानना मान लेगा; मैं कहना चाहता हूँ कि हमारी न्यायपालिका ने भी हमें निराश किया है। न तो उसने सरकार की जवाबदेहिता सुनिश्चित की न ही दोषी कंपनी की। न्यायपालिका भोपाल के खिलाफ ही खड़ी  हुई। यह जवाब कौन देगा की भोपाल में बिछ  चुकी 25 हज़ार लाशों का जिम्मेदार कौन है? किस पर हत्या का मुकदमा चलना चाहिए; यह अब तक तय नहीं है।

आज भी मैं भोपाल गैस त्रासदी की याद में होने वाली रैली में शामिल हुआ। धरने में गया। केवल इसलिए नहीं क्योंकि मैं एक सामाजिक कार्यकर्ता हूँ, इसलिए क्योंकि यह मेरी अपनी लड़ाई है अपनी सरकार के साथ।  मैं अपने लोकतंत्र में राज्य की पक्षधरता का मूल्यांकन करना चाहता हूँ।

Document Type : Article
Document ID : AHRC-ART-134-2012-HI
Countries : India,
Issues : Child rights, Extrajudicial killings, Right to life,