INDIA: अतिकुपोषित है मध्य प्रदेश का शहरी क्षेत्र 

म.प्र के ग्रामीण क्षेत्रों में तो मातृत्व/बाल स्वास्थ एवं पोषण की स्थिति जगजाहिर  है पर प्रदेश  के शहरी क्षेत्रों में भी स्थिति कोई खास अच्छी नही कही जा सकती है  नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे-3 (एन.एफ.एच.एस.) के आकड़ो के अनुसार म.प्र. के शहरी क्षेत्रों में नवजात शिशु मृत्यु दर 41.2 प्रतिशत (ग्रामीण 54.3), प्रसवकालीन शिशु मृत्यु दर 30.3 प्रतिशत (ग्रामीण 30.5), शिशु मृत्यु दर 71.6 प्रतिशत (ग्रामीण 84.6),बाल मृत्यु दर 16.2 प्रतिशत (ग्रामीण 32.2) तथा साल से कम आयु के बच्चों में यह दर 86.6 प्रतिशत (ग्रामीण 114.1) है। इसी तरह से एन.एफ.एच.एस.-द्वारा इंदौर शहर के बारे में दिये गये आकंड़ों के अनुसार में नवजात शिशु मृत्यु दर 33.2 प्रतिशतप्रसवकालीन शिशु मृत्यु दर 8.8 प्रतिशतशिशु मृत्यु दर 42 प्रतिशत,बाल मृत्यु दर 9.8 तथा साल से कम आयु के बच्चों में यह दर 51.4 प्रतिशत है।

नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ न्यूट्रीशन हैदराबाद (एनआईएन) के सर्वे 2010-2011 के अनुसार मध्यप्रदेश के सबसे ज्यादा शहरीकृत जिलों में कम वजन के शिकार बच्चों की स्थिति देखें तो ग्वालियर जिले में 56.6 प्रतिशतभोपाल जिले में 55.8 प्रतिशतजबलपूर जिले में 45.7 प्रतिशत तथा इंदौर जिले में 34.9 प्रतिशत बच्चे कम वजन के हैं।

इसी सदर्भ में इंदौर शहर में दीनबंधु सामाजिक संस्था और भोपाल शहर में नागरिक अधिकार मंच द्वारा 2011 में इन शहरों की बस्तीयों में कुपोषण की स्थिति को लेकर एक अध्ययन किया गया था।

इन्दौर

इन्दौर शहर में दीनबंधु सामाजिक संस्था द्वारा वर्ष 2011 में शहरी क्षेत्रों की दस बस्तियों के करीब 700 से अधिक बच्चों में कुपोषण का अध्ययन किया गया था जिसमें चौंकाने वाले परिणाम सामने आए थे। शहर की इन दस बस्तियों में लगभग 73 प्रतिशत बच्चे कुपोषित पाए गए थे। जिसे प्रशासन द्वारा सिरे से नकार दिया गया था। हालांकि प्रशासन के स्वंय के कुछ सर्वेक्षणों के आधार पर करीब 60 प्रतिशत कुपोषण तो स्थापित होता ही है।

इंदौर में किये गये अध्ययन में एक बात खुलकर सामने आई है कि कुपोषण का स्तर उन बस्तियों में ज्यादा है जो बार बार विस्थापित होती रही है। विस्थापित बस्तियों में कुपोषण का स्तर स्थाई बस्तियों की तुलना में लगभग 40 प्रतिशत का बड़ा अन्तर देखने में आया है।

इसका कारण स्पष्ट है कि विस्थापित बस्तियाँ आज भी अपने जीवनयापन के लिए संघर्ष कर रही है और बुनियादी जरूरतों से विस्थापन के कई बरस बाद भी वंचित है। जरूरत है कि विस्थापन न हो परन्तु व्यापक जनहित में अगर विस्थापन की नौबत आती है तो विस्थापन के पूर्व वैकल्पिक स्थान पर समस्त बुनियादी सुबवधाएँ उपलब्ध कराई जानी चाहिए परन्तु वास्तविकता इससे कोसो दूर है जैसे कि पीने का साफ पानी सुलभ न होनाखुले नालों और मल निकास व्यवस्थाओं के आसपास आवाससड़कबिजलीयातायात आदि का अभाव। शिक्षा व स्वास्थ्य जैसी बुनियादी आवश्यकताओं के अभाव वाले क्षेत्रों में विस्थापन होने से बच्चों के सामान्य विकास में बाधाएँ खड़ी होती है। परिवारों पर आर्थिक बोझ के चलते 10-17 साल के बच्चे कमाने में जुट जाते है। वहीं 0-6 वर्ष के बच्चे लगातार अवहेलना के शिकार होने लगते है। ऐसे में ऑंगनवाड़ी जैसी बुनियादी सेवाएँ बच्चों के पोषण व प्रारम्भिक शिक्षा को बनाए रखने के लिए अपरिहार्य है।

इन विस्थापित बस्ती के निवासियों ने इन नए स्थानों पर बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए बार बार प्रशासन से निवेदन कियाज्ञापन दिए गएधरना प्रदर्शन आदि भी किए गए परन्तु सिवाए आश्वासन के कुछ हासिल नही हुआ।

स्थिति तब और हास्यास्पद हो जाती है जब प्रशासन के पास गरीबों के लिए जवाहरलाल श्हरी नवीनीकरण मिशनवाम्बे (वाल्मिकी अम्बेडकर आवास योजना) आदि के तहत बहुमंजिला इमारतें बनाने के लिए स्थान मिल जाता है परन्तु जब लोग इन्ही बहुमंजिला इमारतों में अपने बच्चों के लिए ऑंगनवाड़ी के लिए एक छोटा सी जगह मांगते है तो जगह उपलब्धा ना होने की दलील दी जाती है। सरकार के विभिन्न विभागों के बीच आपसी खींचतान और बिना समन्वय के काम करने का इससे अच्छा उदाहरण नही मिलेगा। क्योंकि श्हरों में गरीबों के लिए जे.एन.एन.यू.आर.एम. के तहत बनाये जा रहे आवासों का निर्माण या तो इंदौर विकास प्राधिकरण करता है या फिर नगर निगम द्वारा किया जाता है और यह बात स्पष्ट है कि बच्चों के लिए ऑंगनवाड़ी की व्यवस्था इनकी जिम्मेदारी नही है वह तो महिला एवं बाल विकास विभाग की है।

भोपाल

इसी प्रकार नागरिक अधिकार मंच जनवरी भोपाल शहर के 11 बस्तीयों में कुल 255 बच्चों में कुपोषण का अध्ययन किया गया था । इस अध्ययन से यह स्थिति स्पष्ट रूप से सामने आयी कि वजन किये गये कुल 255 बच्चों में 129 बच्चे सामान्य पाये गये जबकि 126 बच्चे कुपोषित है। इन 126 बच्चों में 51 बच्चे अतिकुपोषण के शिकार है। यानी तौल किये गये बच्चों में से लगभग आधे बच्चे कुपोषित-अतिकुपोषित हैं। इन कुपोषित-अतिकुपोषित में ज्यादातर बच्चे दलितआदिवासीअल्पसंख्यक और पिछड़ा वर्ग से हैं।

यह चिंताजनक स्थिति उस भोपाल की है जो प्रदेश की राजधानी है जहॉ ये माना जाता है कि प्रदेश के दूसरे हिस्सों के मुकाबले राजधानी में जीवन जीने के बुनियादी सुविधाओं की स्थिति बेहतर होगी लेकिन उपरोक्त आंकड़े कुछ ओर ही कहानी बया करते हैं।

उपरोक्त दोनों अध्ययनों से स्पष्ट है कि प्रदेश के शहरों में भी बड़े पैमाने पर बच्चे जीवन जीने के लिए बुनियादी सेवाओं तथा पर्याप्त पोषण से महरुम है।

कुपोषण दूर करने के लिए सरकार समेकित बाल विकास परियोजनाऐं चला रही है। आई.सी.डी.एस. के तहत मुख्य सेवाऐं प्रदान की जाती हैं जिसमें पूरक पोषण आहारस्वास्थ्य जांचप्राथमिक स्वास्थ्य की देखभाल-परामर्श सेवायेंटीकाकरण-रोग प्रतिरक्षणपोषण एवं स्वास्थ्य शिक्षास्कूल पूर्व अनौपचारिक शिक्षा शामिल हैं।

उपरोक्त उददेश्यों और सेवाओं की इसे पूरा करने के लिए लगाये गये श्रम शक्ति से तुलना करने पर यह अंदाजा लगाना मुश्किल नही होना चाहिए कि समग्र बाल विकास का सपना जमीनी स्तर पर कितना बदहाल है। इसके अलावा प्रदेश सरकार द्वारा कुपोषण दूर करने के लिए अटल बाल मिशन की शुरुवात की गई और केन्द्र द्वारा हाल ही में आई.सी.ड़ी.एस. मिशन की शुरुवात की गई।

लेकिन अगर हम केवल इन योजनाओं और मिशनों को ही भरोसे ही कुपोषण दूर करने का सपना पाले तोक्या देश – प्रदेश के बच्चों की कुपोषण से मुक्ति सम्भव है दरअसल समस्या के मुकमल हल के लिए नाकाफी हैं! कुपोषण का सीधा संबंध बेरोजगारी,गरीबी,जीवन जीने के लिए जरुरी बुनियादी जरुरतों के अभाव से होता है। इसलिए तात्कालिक रुप से भले ही योजनाओं और मिशनों को प्राथमिकता दी जाये लेकिन यह इसका कोई मुक्कमल हल नही है। इसके लिए इन बच्चों के परिवारों की बेरोजगारी एवं गरीब को दूर करने तथा सम्मानपूर्वक जीवन जीने के लिए आवश्यक संसाधनों तक पहुच होना जरुरी है।

इसके बुनियादी कारणों को दूर करना होगा जिसके लिए राजनीतिक होंसले की जरूरत है। शहरी क्षेत्रों में शुरुवात के लिए के कम से कम इतना तो किया ही जा सकता है कि शहरों में झुग्गी बस्तियों को बार बार व जबरिया विस्थापित ना किया जाये।

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Document Type : Article
Document ID : AHRC-ART-141-2013-HI
Countries : India,