INDIA: जीडीपी यानी विकास का वायरस और भारत के चुनाव

हो सकता है कि कई लोगों (जो खास तौर पर राजनीतिक विचारधारा से ज्यादा राजनीतिक दल के प्रति समर्पित होंगे) को यह नजरिया पसंद नहीं आये कि ये चुनाव व्यवस्था में कोई मूल बदलाव नहीं लायेंगे. इस असहमति के बावजूद हमें उस संकट के मूल कारकों तक जाने की कोशिश करना ही चाहिए, जिन्हें इन चुनावों में दोनों बड़े राजनीतिक दलों ने बहुत सफलता के साथ छुपा दिया था. आखिर क्यों एक पूर्ण बहुमत वाली और स्थिर सरकार से सेंसेक्स इतना गदगद है, क्योंकि अब नयी सरकार को किसी का समर्थन नहीं चाहिए और वह खुल कर उन नीतियों को आगे बढ़ा सकेगी, जिनसे बेरोज़गारी और गैर-बराबरी बढ़ी है.

जो ये मानते हैं कि नरेन्द्र मोदी एक ऐसे ताकतवर प्रधानमंत्री होंगे, जो अर्थव्यवस्था पर भारत की सरकार के नियंत्रण में ला सकेंगे, तो मुझे इस बात पर शंका है. बाज़ार का एक स्वाभाविक सा सिद्धांत है, जिसके पास पूँजी है,वह सबसे ताकतवर है. यह सिद्धांत केवल भारत के लिए ही लागू नहीं होता. कुछ दिन पहले नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशात्री जोसफ स्टिगलिट्ज़ भोपाल में थे. उन्होनें एक चर्चा में बताया कि १९८० के दशक में जब जनरल एग्रीमेंट आन ट्रेड और व्यापार समझौतों (ट्रिप्स) पर चर्चा चल रही थी, तब अमेरिका के व्हाईट हाउस के मुख्य सलाहकार होने के नाते अमेरिका की सरकार को इस पर सहमति नहीं देने का सुझाव दिया था, पर बड़े कार्पोरेशंस इतने वज़नदार थे कि अमेरिका सरकार ने भी ट्रिप्स पर सहमति दे दी. अब आप भावनात्मक तरीके से नहीं जरा तार्किक और तथ्यात्मक नज़रिए से सोचिये भारत की आज भी बाज़ार में आत्मनिर्भरता के सन्दर्भ में क्या औकात है?

भारत में हाल ही में संपन्न हुए चुनाव एक बदलाव की तरफ संकेत करते हैं. यह माना जा रहा ही कि टू जी घोटाला, कोयला घोटाला,  हेलीकाप्टर खरीद घोटाला, राष्ट्रमंडल जैसी घटनाओं के कारण लोगों ने यूपीए को खारिज किया और एनडीए को अपनाया है. अब हमें यह सोचना होगा कि इस तरह के भीमकाय घोटाले हुए क्यों? वास्तव में इनका मूल कारण वही आर्थिक नीतियां हैं, जिन्हें देश में क्रांतिकारी बदलाव के कारक के रूप में पेश किया गया. एक नीति बनी कि कोयले की नीलामी होगी और नीलामी कर दी गयी. एक नीति बनी की स्पेक्ट्रम की नीलामी होगी और नीलामी कर दी गयी. सरकार का तर्क है कि नीलामी एक नीति के तहत की गयी अब उस नीलामी में जो बोली लगी वह तो कोई निर्धारित कर नहीं सकता. ऐसे में कंट्रोलर-आडिटर जनरल ने आंकलन किया कि नीलामी में काम कीमत मिली जिससे सरकार को राजस्व का घाटा हुआ. वास्तव में यह मामला क़ानून के लिहाज से टिकेगा ही नहीं, क्योंकि जो कुछ भी हुआ नीति के तहत हुआ. बहरहाल कुछ हद तक स्पेक्ट्रम के मामले में कोर्ट कुछ कार्यवाही कर पाया जब उसने १२२ आवंटनों को खारिज कर दिया; परन्तु कोर्ट भी तो नीति पर सवाल नहीं उठा पाया. जो कि वास्तव में गलत थी.

कारण बहुत साफ़ है. पिछले २३ सालों की नीतियों में जीडीपी को विकास का पैमाना माना गया है. इस जीडीपी पर ४० प्रतिशत नियंत्रण १०० बड़े उद्योग घरानों का है….जो बार-बार कूटनीतिक तरीकों से अर्थव्यवस्था में हलचल पैदा करके सरकार को डरते-धमकाते हैं और मन मुताबिक नीतियां बनवाते हैं. ये नीतियां देश के हित की नहीं जीडीपी के हित की होती हैं. जरा एक बार फिर जीडीपी को समझते हैं. जीडीपी का मतलब है एक साल में कुल कितने धन/मुद्रा का हस्तांतरण हुआ यानी वस्तु, सेवा या किसी भी क्षेत्र में कितने लेन-देन-उत्पादन हुआ. जितना ज्यादा लेन-देन जीडीपी का उतना ज्यादा विकास….अब जरा इसका व्यवहारिक पहलु देखते हैं. मुद्रा या धन का ज्यादा लेन-देन कब होता है? यदि आप स्वस्थ होंगे तो जीडीपी में कोई योगदान न करेंगे, लेकिंग बीमार होंगे तो डाक्टर, एक्सरे, दवाई,अस्पताल के लिए खर्च करेंगे. दूसरे मायने में आप जीडीपी के विकास में योगदान कर रहे हैं. यदि पेड़ या जंगल सुरक्षित रहते हैं, तो उनका जीडीपी में कोई योगदान नहीं है. जब जंगल कटते हैं तो फर्नीचर बनता है, आक्सीजन काम होती है, बीमारी बढ़ने की आशंका पैदा होती है….तब जीडीपी बढ़ता है. जब नदी साफ़ होती है और समुदाय के आधिपत्य में होती है तब जीडीपी में उसका कोई योगदान नहीं होता. जब वह मैली हो जाती है तो उसकी सफाई के लिए १००० करोड़ रूपए की नदी सफाई कार्य योजना बनती है. तब गंदी नदी जीडीपी में योगदान देती है.  जब तक लोगों के मन में दुर्घटना और असामयिक मृत्यु का भय नहीं बैठेगा, तब तक बीमा कंपनियां भला क्यों कर खुश होंगी! यह विकास ऐसा है, जिसमें इंसान के हर दुःख और कष्ट को उपजाऊ जमीन माना गया है. जितना दुख, जितना दर्द, जितनी अनिश्चितता, उतना ज्यादा व्यापार! दुनिया में आज सबसे बड़ा व्यापार हथियारों का है; जब तक युद्ध न होंगे, तब तक हथियार क्यों बिकेंगे भला; तो यह विकास युद्ध को भी एक लाभ कमाने का एक बड़ा अवसर मानता है और इसी लिए युद्ध होते नहीं हैं, करवाए जाते हैं. अमेरिका जैसे देशों की जीडीपी में युद्धों का बहुत बड़ा योगदान होता है.

यही जीडीपी एक कारण है कि पिछले २३ सालों में सरकारों की यह केन्द्रीय नीति रही है कि पानी, जमीन, जंगल,खनिज आदि सब कुछ समुदाय के हाथ से छीन लिया जाना चाहिए और उसका व्यापार होना चाहिए. सरकार बदल चुकी है, परन्तु क्या नीतियां बदलेंगी? इसी तरह भारत सरकार ने नीति बनायी कि जीडीपी को बढाने के लिए निजी क्षेत्र को अलग-अलग शुल्कों, करों और देनदारियों में रियायत दी जायेगी. यह भी नीति है. और वर्ष २००५ से २०१२ के बीच लगभग ३० लाख करोड़ रूपए की राजस्व छूट दे दी गयी. इसमें से ८ लाख करोड़ तो अकेले बड़े उद्योगों को दी गयी. इसके दूसरी तरफ जब भारत की संसद राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी क़ानून या खाद्य सुरक्षा क़ानून बनती है या सबको सामाजिक सुरक्षा का हक़ देने की पहल शुरू करती है, तो पूरा बाज़ार, खास तौर पर १०० चुने हुए औद्योगिक घराने भांति-भांति के तरीकों से सरकार पर सवाल उठाता है. शेयर बाज़ार गिर जाता है. सरकार पर दबाव बनता है कि ऐसी नीतियां न बनायी जाएँ.

अब जरा यह देखिये. भारत में गरीबों के लिए नीति गरीबी की परिभाषा के आधार पर बनती हैं. आर्थिक उदारीकरण की हमारे समाज को एक बड़ी देन रही है – गरीबी की रेखा. यह रेखा खींचने का काम हमारा योजना आयोग करता है. योजना आयोग बताता है कि गाँव में जो २२ रूपए से काम और शहरों में २८ रूपए से काम खर्च करता है, वही गरीब माना जाएगा. और इस आधार पर वह कह देता है कि १२५ करोड़ में से २७ करोड़ लोग ही गरीब हैं. योजना आयोग के इस निर्णय पर संसद में कोई चर्चा भी नहीं होती है. इसका मतलब यह कि केवल छोटे से तबके को ही सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का हक़ मिलेगा. उन्हें ही वृद्धावस्था पेंशन मिलेगी. जबकि इसी सरकार के आंकलन बताते हैं कि वर्ष २००४-०५ की स्थिति में ७७ फ़ीसदी यानी आज की स्थिति में लगभग ९० करोड़ लोग केवल २० रूपए प्रतिदिन से काम खर्च करके जिन्दगी जीते हैं. यह आर्थिक नीतियों का ही प्रताप है कि सरकार खुद इन निष्कर्षों को खारिज कर देती है. नीतियों के भ्रष्टाचार पर चुप्पी बहुत खतरनाक है. बीमारी गंभीर है, हम सब उसका उपचार खोज रहे हैं, पर इस खोज के साथ दो तरह की दिक्कतें हैं – एक तो हमारी राजनीति व्यवस्था हिंसक रूप से प्रतिक्रियावादी व्यवहार कर रही है और दूसरी कि सभी इसका तात्कालिक निदान चाहते हैं. यह स्थिति हमें फिर तथाकथित सुधारों की नीतियों की तरफ ली जायेगी. उदारीकरण की नीतियों में सुधार का मतलब होता है कि सरकार अर्थव्यवस्था में सीधी भूमिका न निभाते हुए नियमन की भूमिका निभाये और बाज़ार को ढांचागत सुविधाएँ उपलब्ध करवाए. इसमें सरकार से यह उम्मीद नहीं की जाती है कि वह बच्चों के स्कूल चलाये या अस्पताल चलाये. स्कूल और अस्पताल चलाने का काम निजी क्षेत्र को करना चाहिए. लोगों को सस्ता राशन नहीं मिलना चाहिए क्योंकि इससे भोजन का व्यापार करने वालों का लाभ कम हो जाता है. और आगे बढिए; सरकार को राज्य परिवहन निगम यानी सरकारी बसें भी नहीं चलाना चाहिए और निजी बस संचालक उसू मार्ग पर सड़क चलता है, जहाँ उसे लाभ मिलता है यानी जहाँ गरीब या कम लोग होंगे उन्हे सार्वजनिक परिवहन का हक नहीं मिलेगा. सरकार को बिजली का उत्पादन भी नहीं करना चाहिए और ऐसे विद्युत नियामक आयोग बनाये गए, जो केवल बिजली कंपनियों के लिए ही ढपली बजाते हैं. खेती का काम किसान न करें और खेत कारपोरेट खेती के लिए एग्रो-बिजनेस कार्पोरेशंस को दे दिए जाएँ. २.९० लाख किसानों की आत्महत्या इस नीति की सफलता का सूचक है. पानी भी मुफ्त नहीं होना चाहिए और सरकार का काम लोगों को पानी देना नहीं है. यह सब कुछ निजी क्षेत्र के के आधिपत्य में दे दिया जाना चाहिए. और फिर निजी क्षेत्र लोगों से इसका शुल्क ले, निरंकुश तरीके से लाभ कमाए और सरकार को थोडा-बहुत शुल्क या कर दे दे. इस राजस्व का उपयोग फिर सरकार उन्हे और ज्यादा सुविधाएँ देने में करे. यानी सरकार और समाज १०० धनाड्य परिवारों की सेवा में जुटा रहे.

इन नीतियों को पिछले २३ सालों की सरकारों ने खूब शिद्दत से लागू किया है. सरकारी खर्च कम करने के नाम पर उन्होंने ३० लाख से ज्यादा लोगों को सरकारी और अर्द्ध सरकारी नौकरियों से निकाला और पदों को ख़त्म करते गए. अब सरकार खुद नौकरी नहीं देती और निजी क्षेत्र सबको रोज़गार देगा नहीं क्योंकि इससे उसके उत्पादन की लागत बढ़ती है और लाभ कम होता है. अब छोटा सा सवाल यह है कि भारत का संविधान तो भारत में जनकल्याणकारी राज्य की संकल्पना करता है न! जनता के हितों का ध्यान अब कौन रखेगा? क्या लोगों को पानी, स्वास्थ्य. शिक्षा, भुखमरी से मुक्ति, सुरक्षा उपलब्ध करवाने में सरकार की ही सीधी और केन्द्रीय भूमिका नहीं होना चाहिए. सरकार साल भर आज यही सोचती है कि वह अपना वित्तीय घाटा काम कैसे करे; इस घटे को काम करने के लिए वह शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा, कृषि, रोज़गार पर अपना निवेश कम कर देती है; परन्तु निजी क्षेत्र को दी जाने वाली रियायत कम नहीं करती है. संभव है कि इन नीतियों को शिथिल किये जाने के बाद लोग अरबपति न बन पायें (अब भी कुछ ही बन रहे हैं), पर असमानता – गैरबराबरी कम होगी, लोगों को अपने संसाधनों पर हक़ मिलेगा जो उनके जीवन में स्वतंत्रता और सम्मान लाएगा. बस एक बात सोचिये कि जिन संसाधनों का इस्तेमाल आज निजी क्षेत्र पूरी गैर-जिम्मेदारी और वहशियाने ढंग से कर रहा है, यदि वही हक़ समुदाय दिया जाए, तो संसाधनों का इस्तेमाल आर्थिक विकास के लिए भी होगा और उनका संरक्षण भी होगा.

हम सब के दिल-दिमाग पर मीडिया ने हर रोज़ चौबीसों घंटे बार-बार जीडीपी-शेयर बाज़ार के सेंसेक्स को इस तरह पटका कि अब कोई इस वायरस के खतरनाक अंजामों के बारे में सुनने के लिए ही तैयार नहीं है. सेंसेक्स का आंकड़ा उसे चरस के नशे की तरह की अनुभूति देता है. वह सोचता है कि वाह! सेंसेक्स १००० पाईंट बढ़ गया, आज सब्जी सस्ती मिलेगी, अब दवाईयाँ सस्ती होंगी, अब हवा में जहर काम होगा; परन्तु सेंसेक्स के बढने का वास्तविक मतलब इसके ठीक उलट होता है. जब सरकार कहती है कि हम देश की ६७ प्रतिशत जनसँख्या की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए क़ानून पारित करते हैं, तो सेंसेक्स गिर जाता है, बाज़ार में मायूसी छा जाती है. जब रोज़गार क़ानून बना, तब भी बाज़ार गिरा गया था. हमारा युवा और पढ़ा-लिखा देश विकास की इन नीतियों के असरों और दूरगामी परिणामों को क्यों नहीं समझना चाहता है?

विश्व बैंक से लेकर तमाम अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संगठन भारत सरकार से कहते रहे हैं कि वह नक्सलवाद को ख़त्म करे क्योंकि आंतरिक शांति के बिना भारत में निवेश की संभावनाएं कम होंगी. सरकार तत्काल कुछ करती है;किसके लिए? निवेश के लिये? लोगों के लिए नहीं? उन मसलों को हमेशा दबाया जाता है, जिनके कारण नक्सलवाद जैसे संकट हमारे सामने खड़े हुए और खून बहाकर जिन्दगी को दूभर कर रहे हैं. जब भी कोई घटना होती है, तो हमारे मंत्री तक कहते हैं कि हम बदला लेंगे और सबक सिखायेंगे…क्या बचकाने टाईप मंत्री इस देश को मिले हैं…जीडीपी और आर्थिक विकास की अनैतिक मंशा में हमारी सरकार इस कदर डूबी रही हैं, कि उन्हे पता ही नहीं चला कि ९८ फीसदी भारतीय बरोजगारी, पोषण की असुरक्षा, गुणवत्ताहीन असमान शिक्षा, भुखमरी और अपराधों से जूझ रहे हैं….

क्या कोई भी एक संकेत है कि नयी सरकार उन नीतियों को खारिज करने की ताकत रखती है, जिन्होने कुटिल पूंजीवादियों को संसद-सरकार-संविधान से ऊपर उठा दिया है?

भ्रष्टाचार और मंहगाई से सतही संकट को मूल संकट मानना एक बड़ी भूल और अक्षम्य गलती है. मंहगाई,असमानता और भ्रष्टाचार तो परिणाम है……गलत नीतियों और सोच का….क्या हमें नहीं लगता है कि नयी सरकार अब ज्यादा विरोधभासी होगी केवल एक उदाहरण देखिये कभी वह निजी क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की नीति को ख़त्म करने की बात करती है तो कभी कहती है कि रोज़गार के लिए इसकी अनुमति देंगे. गंगा की सफाई की बात बहुत जोरों पर है, पर उसे गन्दा करने का काम तो जल-विद्युत परियोजनाएं कर रही हैं और कई उद्योग कर रहे हैं, उनके बारे में तो एक वक्तव्य भी नहीं आया. इसके साथ ही भारतीय जनता पार्टी नदियों को जोड़ने की परियोजना को लेकर अपनी प्रतिबद्धता दिखाती रही है. गाय-गांव-गंगा के को सांस्कृतिक प्रतीक मानने वाले ये लोग इतनी बात क्यों नहीं समझते हैं कि हर नदी की एक अपनी एक जलीय दुनिया होती है, खास मछलियाँ होती हैं, बैक्टीरिया बैंक होता है, पानी का पीएच मानक होता है. यदि दो या अधिक नदियाँ जोड़ी जायेंगी तो असंतुलन पैदा होगा. बहरहाल बात किसी एक व्यक्ति या राजनीतिक दल से जुडी हुई नहीं है. यह तो एक राजनीतिक चरित्र और आर्थिक विकास की विचारधारा को बदलने की बात है. जब तह यह न बदले, तब तक कोई बदलाव मत मानियेगा. पिछले कई सालों से हमारे पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चुप्पी पर बहुत कटाक्ष हुए, पर यह भी तो देखिये कि वे चुप रहते हुए किस तरह उदारीकरण और निजीकरण को आगे बढ़ा गए. अमेरिका के साथ परमाणु करार, खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, विश्व व्यापार संगठन में खाद्य सुरक्षा पर समझौते जैसे जन-विरोधी फैसले तो उन्होंने ले ही लिए. ये “उल्लू बनायिंग” वाली बात हो गयी…बुद्धिमान लोग चुटकुले बनाते रहे और नरसिम्हा राव से लेकर मनमोहन सिंह जी तक सब हमें जीडीपी की घुट्टी पिला कर चले गए.   आप किसी एक राजनीतिक दल की विचारधारा में विश्वास करते हैं, बिलकुल करना चाहिए और पूरी स्वतंत्रता के साथ किया जाना चाहिए; पर क्या इसका मतलब यह है कि इस अंधानुकरण में हम यह भी देखना और समझना बंद कर दें कि ये नीतियां और कुटिल पूँजी बाज़ार के विचार केवल राष्ट्र को ही नहीं, इंसानियत को भी जार-जार कर रहे हैं और भीतर ही भीतर उपनिवेशवाद की तरफ ले जा रहे हैं.

About the Author: Mr. Sachin Kumar Jain is a development journalist and researcher who is associated with the Right to Food Campaign in India and works with Vikas Samvad, AHRC’s partner organisation in Bhopal, Madhya Pradesh. The author could be contacted at sachin.vikassamvad@gmail.com Telephone: +91 755 4252789.

Document Type : Article
Document ID : AHRC-ART-042-2014-HI
Countries : India,