INDIA: सिएथल से सिएटल की यात्रा

सचिन कुमार जैन 

आदिवासियों को लेकर फैली सारी भ्रांतियों को मिटा देने वाला एक उदाहरण और है। वह है रेड इन्डियन आदिवासियों के मुखिया सिएथल का जिसके नाम पर अमरीका का सिएथल शहर है। ब्रिटेन से सजायाफ्ता अंग्रेजों को बतौर सजा अमरीका भेजा गया था तब उन्होंने व उनके वंशजों ने जो जुल्म उन आदिवासियों पर ढाये थे और मजबूरन आदिवासी मुखिया को सन् 1854 में समझौता करना पड़ा था तब आदिवासी और प्रकृति के संबंधों पर सिएथल ने अपने लोगों के बीच एक अत्यंत मार्मिक वक्तव्य दिया था जो विश्‍व के कुछेक श्रेष्ठ वक्तव्यों में माना गया है। उस आदिवासी मुखिया के विचार पृथ्वी के समस्त आदिवासियों की सोच का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्होंने प्रकृति को वास्तविक अर्था में माँ माना है।

सिएथल के मार्मिक वक्तव्य को देने से पूर्व सिएथल के बारे जानकारी देना यहाँ उचित होगा। सिएथल के पुरखे उत्तरी अमेरिका के उस क्षेत्र के मूल आदिवासी थे। उनकी मूल भाषा लषूत-सीड रही। सिएथल का पूरा नाम नोह सिएथल था। इतिहासकार क्लेरेंस बगले ने काफी खोजबीन कर सिएथल के माँ बाप का नाम तलाश। सिएथल के पिता का नाम स्वेब था जो सुक्वेमिस आदिवासी कबीले के थे और उनकी माता का नाम शालिजा था। उनकी माँ का कबीला डूवेमिश था। सिएथल पर कैथोलिक मिशनरीयों का प्रभाव पड़ा और वह बाबटिस्ट बन गया था। इन आदिवासियों का क्षेत्र प्यूजेट साउंड नाम से भी जाना जाता रहा है। इस क्षेत्र में सबसे पहले बाहरी घुसपैठ सन् 1758 से 1798 की अवधि में हुई। साहसिक यात्री केप्टन जॉर्ज वेनकोवर ने सन् 1792 के मई माह में एक सप्ताह इस क्षेत्र के जूएन्डिफूका भू-भाग में बिताया। इस क्षेत्र के आदिवासियों का मुख्य व्यवसाय भेड़ पालन और उस पर आधारित कम्बल व्यवसाय था। जो यूरोपवासी उनके सम्पर्क में आये उनसे वस्तु विनिमय प्रणाली द्वारा छोटे स्तर पर व्यापार भी किया जाने लगा था।

सिएथल जन्म से ही बुद्धिमान एवं साहसिक व्यक्ति के रूप में उभरा था। इसी वजह से सिएथल अपने माँ-बाप से संबंध रखने वाले कबीलों का मुखिया बन गया था। बाहर से आने वाले यूरोपियों के साथ आदिवासी कबीलों ने उसके नेतृत्व में सफल लडाइयाँ लड़ी। इन लडाइयों के बाद सिएथल उत्तरी अमेरिकी आदिवासी कबीलों का सर्वसम्मति से नायक बन गया था। रेड इन्डियन आदिवासियों का यह सारा क्षेत्र प्राकृतिक सम्पदा की दृष्टि से अति समृद्धि था। बाद में उस क्षेत्र में स्वर्ण खनन का कार्य भी शुरू किया गया। प्राकृतिक संसाधनों की महत्ता को देखते हुए अमरिकी सरकार व वहाँ के व्यवसायिओं की लगातार घुसपैठ शुरू हो गई। उस क्षेत्र का अमेरिकी गवर्नर इसाक स्टेवेंस (1818-1862) अमेरिकी राष्ट्रपति के निर्देशाधीन उस क्षेत्र में गया और आदिवासियों पद दबाव डाला। उनकी पुस्तैनी भूमि हड़पने का स्पष्ट इरादा रखते हुए उसने इस शुरुआत को समझौता नाम दिया। उन आदिवासियों पर बाहरी व्यक्ति निश्चित रूप से ताकतवर थे और साधन सम्पन्न व विकसित भी थे। अतः आदिवासी मुखिया सिएथल ने यही उचित समझा कि हिंसक संघर्ष और तज्जन्य दुष्परिणाम को टालने के लिए पुष्तैनी जमीन का कुछ मांगा जाने वाला हिस्सा उन्हें दे दिया जाए। यह सब उसने अत्यन्त भारी मन से किया था। उसकी मजबूरी यह थी कि इसके अलावा कोई चारा भी नहीं था। सन् 1854 में यह तथाकथित संधि की गई। संधि से पूर्व सिएथल ने अपने लोगों के बीच यह वक्तव्य दिया। 7 जून 1866 को सिएथल की मृत्यु हुई। मृत्यु पर्यन्त वह मुखिया के रूप में स्थापित रहे।

उक्त संधि के बाद अमरीकियों ने भी आदिवासी मुखिया को प्रभावशाली व्यक्ति के रूप माना और मुखिया सिएथल के नाम पर उस आबादी क्षेत्र को सिएथल के नाम से जाना जाने लगा और आज भी सिएथल के नाम पर षहर है। इस संधि की प्रक्रिया भी बड़ी पेचीदा रही। अत्यन्त सीमित स्तर पर बोली जाने वाले चिनूक झारगन भाषा के माघ्यम से यह वार्ता हुई। संधि के प्रस्तावों को अमरीका ने मन से नहीं माना और आदिवासी क्षेत्रों में अनैतिक घुसपैठ जारी रखी। इस तरह के अमरीकी बर्ताव से क्षुब्ध होकर सिएथल को बड़ी पीड़ा पहुंची व संधि और उसके प्रावधानों के मुताबिक वांछित संशोधन के अभाव में संधि का विवाद काफी समय तक जारी रहा। सिएथल का वक्तव्य आदिवासी भाषा में था जिसका अंग्रेरजी अनुवाद 29 अक्टूबर 1887 में ‘‘सिएथल संडे स्टार’’ में डॉ. हेनरी स्मिथ ने पहली बार प्रकाशित किया। अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद इतिहास बोध पत्रिका के 35वें अंक में प्रकाशित हुआ। सिएथल के उसी अनुवाद की प्रस्तुति साभार यहाँ की जा रही है।

क्या जंगलों को …… 

गोरे राज्य के प्रमुख ने कहलवाया है कि वे हमारी जमीन खरीदना चाहते हैं।
उनके सरदार ने दोस्ती और भाईचारे का सन्देश भी भिजवाया है।
यह उनका बड़प्पन है।

हम जानते हैं कि उन्हें हमारी दोस्ती की जरूरत नहीं:
लेकिन उनके प्रस्ताव पर हम विचार करेंगे, क्योंकि हम यह भी जानते हैं कि यदि जमीन नहीं बेची तो तोपों सहित आ सकते हैं ये गोरे लोग।
किस तरह तुम बेच या खरीद सकते हो आकाश को? 
या पृथ्वी के स्नेह को?..ये बात हमें समझ नहीं आती
जब हवा की ताजगी और पानी की स्फूर्ति
हमारी मिल्कियत नहीं तो कैसे बेच सकते हो उनको ?

पानी के कल-कल में सुनाई देती है हमारे पूर्वजों की आवाज
नदियां हमारी दोस्त हैं, प्यास बुझाती है
इनकी लहरों पर खेलती हैं हमारी छोटी नावें
और मिटाती है हमारे बच्चों की भूख और प्यास।
तो तुम उसे वही प्यार और स्नेह देना, जो तुम अपने प्रियजन को देते हो।
गोरों को आगे बढता देख हम आदिवासी हमेशा पीछे हटे हैं
जैसे सूर्य के उदय होते ही भाग जाता है पर्वतों से कोहरा।
यहाँ बिखरी है हमारे पूर्वजों की राख,
और ये पेड़, ये पर्वत और धरती का यह भाग,
पवित्र है, इन्हीं पर टिकी है
हमारे पूर्वजों की समाधियां।

हम जानते हैं कि गोरे हमारे तौर तरीकों को नहीं समझते,
उनके लिए सभी जमीन एक जैसी है।
नहीं लगाव किसी भी जमीन के टुकडे के साथ,
वे अजनबी की तरह अंधेरे में आते हैं
और ले जाते हैं वो सब, जो उन्हें चाहिए।

जमीन उनकी दोस्त नहीं, दुश्मन है
जिसे जीत कर वे आगे बढ जाते हैं 
और छोड़ जाते पीछे पिता की समाधि-
इसकी भी उन्हें कोई परवाह नहीं
अपने बच्चों से छीन लेते हैं धरती 
इसकी भी उन्हें परवाह नहीं।

मां समान धरती और पिता समान आकाश, 
उनके लिए बेजान बाजारू चीजें हैं,
जिसे वे भेड़ों या चमकते मोतियों की तरह खरीदते-लूटते और बेच देते हंै।

एक दिन आएगा जब उनकी विषाल भूख सारी धरती
निगल लेगी और रह जाएगी सिर्फ रेगिस्तार की बालू

मैं समझ नहीं पाया,
शायद हमारे जीने का ढंग तुमसे अलग है
तुम्हारे शहरों के नजारों को देख, आँखों में चुभन होती है
लेकिन शायद हम आदिवासी जंगली हैं, असभ्य हैं,,जो तुम्हारी बातें नहीं समझ पाए।
तुम्हारे शहरों में कोई गली शांत नहीं,
कोई ऐसी जगह नहीं जहां सुनाई दे बसंत में कोपलों का खिलना,
या किसी कीट के पंखों की सरसराहट।

लेकिन मैं तो असभ्य हूं।
और इसलिए शायद नहीं समझता तुम्हारी बातें
यहां का शोर कानों को चोट पहुंचाता है
ऐसे जीवन का क्या अर्थ जहां इंसान नहीं सुन सकता
एक जानवर के अकेलेपन का रूदन?
या रात को किसी पोखर में मेंढकों का वाद-विवाद।

मैं एक आदिवासी हूं इसलिए तुम्हारी बातें नहीं समझता
हमें तो सुहाती हैं हवा की वो मीठी धुन, जो तालाब की सतह को छूती हुई निकल जाती है
और बारिष में मिट्टी की भीनी-भीनी खुशबु,
या फिर पेड़ों की महक से भरी हुई बयार।

हमारे लिए हवा बहुत कीमती है
क्योंकि सभी -पशु, पक्षी, तरू, मानव, उसी हवा में साँस लेते हैं,
सब उसी को बाँटते हैं
लेकिन गोरे लोग इस हवा की परवाह नहीं करते
वैसे ही जैसे शैया पर पड़ा आदमी सुन्न हो जाता है दुर्गन्ध के प्रति।

फिर भी अगर हम तुम्हें अपनी जमीन बेचते हैं
तो जरूर याद रखना कि ये हवा हमारे लिए बहुत कीमती है
यह मत भूलना कि हवा जीवों का पोषण करती है,
और सबके साथ अपनी आत्मा बाँटती है,
इसी हवा में हमारे पुरखों ने ली अपनी पहली
और आखिरी साँस,
यही हवा देगी हमारे बच्चों को जीवनदान,
अगर हम तुम्हें अपनी जमीन बेच देते हैं
तो इसे अलग रखना। पवित्र रखना।
जहां तुम गोरे भी कर सको सुगंधित बयार का अनुभव।
ठीक है, तुम्हारे प्रस्ताव पर विचार करेंगे

लेकिन एक शर्त है मेरी – धरती पर बसने वाले पशुओं को भी समझोगे तुम अपना बंधु
मैं जंगली हूँ और शायद नहीं जानता कोई और जीने का तरीका।

मैने मैदानों पर हजारों भैंसों के सड़े-गले शरीर देखे हैं,
जिन्हें गोरों ने बेवजह चलती गाड़ी से मार दिया था
मैं सभ्य नहीं और नहीं समझ पाता –
कि कैसे धुंआ उड़ाती बेजान लोहे की गाड़ी;
{सिएथल ने रेल को ‘स्मोकिंग आयरन होर्स’ कहा}
उस पशु की जिंदगी से ज्यादा जरूरी है।
पशुओं के बिना मुनष्य क्या रह सकता है ?
अगर पशु न रहे,
तो मनुष्य भी अकेलेपन की पीड़ा से खत्म हो जाएगा
और वैसे भी, जो पशुओं के साथ होगा
वही मनुष्य भोगेगा एक दिन
आखिर,, सभी कुछ तो जुडा है एक दूसरे के साथ।

अपने बच्चों को जरूर सिखाना
कि जिस जमीन पर चलते हैं
वो हमारे पुरखों की राख से बनी है
उस जमीन का आदर करना सीखें
अपने बच्चों को यह भी बताना
कि ये मिट्टी हमारे पुरखों की गाथा से समृद्ध हैं
कि धरती हमारी माँ है –
यह हमने अपने बच्चों को बताया
और तुम भी यही बताना।

इंसान ने नहीं बुना जीवन का ताना-बाना 
वो तो सिर्फ उसमें एक तिनका है
उसके साथ वही होगा जो वो करेगा ताने-बाने के साथ।

हम तुम्हारे प्रस्ताव पर विचार करेंगे
कि उन आरक्षित स्थानों में चले जाएं,
जिसे तुमने हमारे लोगों के लिए अलग रखा है
हम अलग रहेंगे और शान्ति से रहेगे
इसका महत्व नहीं कि कहां बिताते हैं अपने शेष दिन;;;

हमारे बच्चों ने हमारी पराजय को देखा है,
हमारे योद्धाओं ने लज्जा के कड़वे घूंट पिये हैं।
पराजय ने उन्हें उदासीन बना दिया है 
आलस्य को शराब में डुबोते है और खत्म करते हैं वे अपना शरीर।

अब कुछ फरक नहीं पडता कि कहां बिताते हैं हम बाकी के दिन
वैसे भी हम गिनती में ज्यादा नहीं
चंद घंटे, कुछ और साल और फिर
उन महान कबीलों की कोई संतान शेष न रहेगी
जो कभी बेधड़क इस धरती पर घूमते थे
और अब छोटी टुकडियों में भटकते हैं घने जंगलों के बीच;

कौन शोक मनायेगा उनके लिए 
जो उतने ही ताकतवर और आशावादी थे
जितने आज तुम हो,
पर क्यों करूँ मैं शोक अपने कबीलों के अंत का ?
आखिर कबीला है क्या – लोगों का एक समूह;
लोग आते हैं, चले जाते हैं; जैसे सागर की लहरें।

ये गोरे लोग भी
बच नहीं सकते उस सांझी नियति से जो सबकी एक है
शायद इसीलिए हमारा रिश्ता बंधुओं का ही है 
पर यह तो आने वाला समय ही बताएगा।

एक बात हम जानते हैं – हम सबका भगवान एक है
गोरे लोग भी शायद एक दिन ये बात जान जायेंगे
क्या तुम सोचते हो कि वो सिर्फ तुम्हारी मिल्कियत है ? 
हमारी जमीन की तरह ? जो तुम ले लोगे हमसे एक दिन ?
नहीं, ये मुमकिन नहीं।
क्योंकि वो हम दोनों को एक नजर से देखता है।
उसके लिए यह धरती अमूल्य है
और इस वसुंधरा को हानि पहुचाना
उसके रचयिता का तिरस्कार होगा
एक दिन गोरे लोगो का भी अन्त आयेगा,
शायद और जातियों से भी पहले।

अपने वातावरण को यदि दूषित करोगे
तो देखना, किसी रात तुम्हारा दम उसी गंदगी में घुट जाएगा
पर अपने विनाश में भी तुम चमकोगे,
उस भगवान के दिए हुए तेज से,
जो तुम्हें धरती पर लाया,
और किसी विशेष उद्देश्य से
धरती का और आदिवासियों का शासक बनाया।

यह नियति हमारे लिए एक रहस्य बन गई 
क्योंकि जब भैसों का वध होता है,
जंगली घोड़े को पालतू बनाया जाता है,
जंगल के हर वनों में घुस जाती है इंसानी भीड़ की गंध,
और पहाडो़ं का सुंदर दृश्य ढक जाता है टेलीफोन के तारों से 
तब नियति को हम समझा नहीं पाते
कहां गई हरियाली? कहां गए विशाल पक्षी ?
कहां गए दौड़ते घोडे, वो शिकार का खेल ?

जीने का तो अब अंत आ गया है,
शुरू हो गई है जिंदा भर रहने की कोशिश।
बेचने के प्रस्ताव पर विचार करेंगे,
तब शायद – अपनी मर्जी से
तुम्हारी दी गई जमीन पर काट सकें आखिरी दिन।

जब धरती पर से अंतिम आदिवासी भी मिट जाएगा
तब ये समुद्र तट और बीहड़ वन,
मेरे लोगों की आत्मा संजोकर रखेंगे
मेरे लोग इस धरती को उतना ही प्यार करते हैं,
जितना माँ की धड़कन को एक नवजात शिशु।

इसलिए अगर हम तुम्हें जमीन बेचते हैं
वो वैसे ही प्यार करना उसे जैसे हमने किया
वैसे ही संवारना, जैसे हमने संवारा
अपनी पूरी ताकत, दिलो दिमाग से
संभालकर रखना इसे अपने बच्चों के लिए
और प्यार करना उतना ………………
जितना परम पिता हमसे करता है।

एक बात हम जानते हैं – हम सबका भगवान एक है
और ये भूमि ऐसे बहुत प्यारी है
गोरे लोग भी बच नहीं सकते
उस नियति से – जो सबकी एक है।
अंततः शायद हम बंधु हैं। ………. यह समय ही बताएगा।

(साभार: ‘इतिहास बोध’ – 35)

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About the author: Mr. Sachin Kumar Jain is a development journalist and researcher who is associated with the Right to Food Campaign in India and works with Vikas Samvad, AHRC’s partner organisation in Bophal, Madhya Pradesh. The author could be contacted at sachin.vikassamvad@gmail.com Telephone: +91 755 4252789.

Document Type : Article
Document ID : AHRC-ART-006-2015-HI
Countries : India,
Issues : Right to food,