INDIA: मौत से जिंदगी का सफ़र चुनते सत्याग्रही और दुधारी तलवार से मारती सरकार 

सुनो
वर्षों बाद
अनहद नाद
दिशाओं में हो रहा है
शिराओं से बज रही है
एक भूली याद !!
वर्षों बाद ……..|

दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियाँ 10 सितम्बर 2012 को तब चरितार्थ हो गईं  जबकि मध्यप्रदेश सरकार ने खंडवा जिले के घोगलगांव में पिछले 17 दिनों से जारी जल सत्याग्रह से परेशान होकर सत्याग्रहियों की कुछ मांगें मान लीं | चारों दिशाओं से इन्किलाब-जिंदाबाद के गगनभेदी नारों का उद्घोष आल्हादित हुआ | सरकार ने आज तो सत्याग्रहियों की बरसों पुरानी और मूल मांग को भी माना था जिसे सरकार या तो बिसार चुकी थी या बिसारना चाहती थी | सरकार ने विस्थापितों को अपने लैंड बैंक से जमीन के बदले जमीन देने का भी एलान किया | सरकार ने ओम्कारेश्वर बाँध में ना केवल जल स्तर कम करने का आश्वासन दिया बल्कि घोषणा के कुछ ही घंटों में कम भी कर दिया | निश्चित रूप से यह एक ऐतिहासिक जीत थी | हालाँकि अभी इंदिरा सागर बाँध के सम्बन्ध में इस तरह का कोई भी निर्णय नहीं हुआ है |

सवाल यहाँ यह है कि आखिर एसी कौन सी मजबूरियाँ गांव वालों के सामने रहीं कि वे उसी मोटली माई (नर्मदा) में, जिसे वे पूजते हैं  अपने आपको गला देने के लिए मजबूर हो गए | दरअसल विस्थापन एक मानवीय त्रासदी है | गाहे-बगाहे वे सरकारी अधिकारी इसके पक्ष में सुर अलापते नजर आते हैं जिनके घर-बार, मकान-दुकान इस प्रक्रिया में प्रभावित ना हों | वे बार-बार इसे तीन अक्षरों के उस मकडजाल में उलझाकर रखना चाहते हैं जिसका शब्दाकार विकास नाम का चोला ओढ़ लेता है | पर यह कैसा विकास और किसकी कीमत पर किसका विकास !! पूरे देश और दुनिया में विकास बनाम विनाश की इस अवधारणा को सामने लाने का और इस पर बहस छेड़ने का काम किया नर्मदा बचाओ आन्दोलन (नबआं) ने | नबआं ने इस नए विकास का पोस्टमार्टम कर पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया | एक बड़ी बहस छिड़ी | इस बहस की परिणति ही है जल सत्याग्रह | जल सत्याग्रह को समझने में हमें मददगार होगा मुनव्वर राणा का यह शेर

धूप वायदों की बुरी लगने लगी है अब हमें
अब हमारे मसअलों का कोई हल भी चाहिए |

ओंकारेश्वर और इंदिरा सागर बाँध बनने के वर्षों बाद भी विस्थापितों को उनका हक नहीं मिल पाया है | वर्ष 1989 में नर्मदा पंचाट के फैसले में यह स्पष्ट किया गया था कि हर भू-धारक विस्थापित परिवार को जमीन के बदले जमीन एवं न्यूनतम 5 एकड़ का अधिकार दिया जायेगा | इसके बावजूद भी पिछले 25 सालों में म.प्र. सरकार ने एक भी विस्थापित को आज तक जमीन नही दी है। सरकार अपने वायदे भूलती रही |

गौरतलब है कि इस मसले पर पीड़ितों ने  2008 में उच्च न्यायालय में याचिका दायर की और उस पर उच्च न्यायालय ने प्रभावितों के पक्ष में दिये अपने निर्णय में कहा था कि सरकार को पुनर्वास नीति का कड़ाई से पालन करना होगा तथा भूमि धारक को जमीन के बदले जमीन तथा 2 हेक्टेयर सिंचित जमीन प्रदान करना होगा |  इस फैसले को चुनौती देते हुए सरकार ने उच्च्तम न्यायलय में अपील की | पिछले साल 11 मई 2011 को सर्वोच्च न्यायालय ने भी उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखते हुए यह कहा कि इस हेतु जो भी किसान इच्छित है वह शिकायत निवारण प्राधिकरण के समक्ष अपना आवेदन कर सकता है। इस आदेश के बाद औंकारेश्वर बाँध के 2500 विस्थापितों ने जमीन के आवेदन भरे, जिसमें से 1000 से ज्यादा आवेदनों की सुनवाई शिकायत निवारण प्राधिकरण पूरी कर चुका है व अभी भी आवेदनों पर सुनवाई जारी है। 225 से ज्यादा आदेश आ चुके है। शिकायत निवारण प्राधिकरण ने सरकार तथा परियोजनाकर्ता कम्पनी को यह आदेश दिया है कि वे प्रभावितों द्वारा आधा मुआवजा लौटाने पर उनको 5.5 एकड जमीन प्रदान करें या 5 एकड़ जमीन खरीदने पर आर्थिक मदद् करे। सुप्रीम कोर्ट  ने यह भी कहा है कि दी जाने वाली जमीन किसान की मूल जमीन से खराब नही हो सकती है तथा अतिक्रमित भी नहीं हो सकती है। कोर्ट ने यह भी कहा है कि जमीन आवंटन का काम बांध निर्माण के पूर्व पूरा करना पड़ेगा।

गौरतलब है कि 24 जुलाई 2012 को ओंकारेश्वर का यह आदेश सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा सागर के विस्थापितों पर भी लागू कर दिया कि जिससे इंदिरा सागर बाँध के 20000 से अधिक किसान 5.5 एकड़ सिंचित जमीन के पात्र बन गये। जमीन देने के आदेशों से बोखलाई सरकार तथा एन.एच.डी.सी. कम्पनी अब इंदिरा सागर तथा औंकारेश्वर परियोजना का जल स्तर बढाने में तुली हुई थी ताकि सभी विस्थापित इधर उधर भटक जाये व पुनर्वास नीति विफल हो जाये। अपनी इसी मांग को लेकर 16 जुलाई से अनशन कर रहे लोग 25 जुलाई को अचानक जलस्तर बढाए जाने के विरोध में खंडवा के घोगलगांव में जल सत्याग्रह पर बैठ गए | उन्होंने 17 दिनों अपने शरीर को गलाना जारी रखा |

अपने घरों में, खेतों में घुस रहे पानी को लेकर लोगों ने सत्याग्रह शुरू किया | बरसात के गंदले पानी में, कीड़े मकोडों के बीच अपने कीचड से सने पैरों से सत्ता के अहंकार को रोंद दिया | सरकार को 17 दिनों के लंबे जल सत्याग्रह और उस पर देश और दुनिया में मचे बवाल पर सरकार को मांग मानने पर मजबूर होना पड़ा | एशियन ह्यूमन राइट्स कमीशन, हांगकांग के निरंतर हस्तक्षेप और देश के अलग-अलग हिस्सों से मिल रहे जनसमर्थन व मीडिया की शुरूआती संवेदनहीनता और बाद में संवेदनशीलता से लबरेज रिपोर्टिंग ने इस मामले पर सरकार को नए सिरे से सोचने पर मजबूर होना पड़ा |

लेकिन क्या यही वजहें हैं कि सरकार को झुकना पड़ा या इसके पीछे कुछ और कारक भी हैं | तो आइये जरा कुछ परतें हटाएँ | अक्टूबर माह के अंतिम सप्ताह में इंदौर में यह सरकार विश्व के कुछ चुनिन्दा उद्योगपतियों के साथ एक निवेशक बैठक (सरकार भाषा में इन्वेस्टर्स मीट) करने जा रही है | इस निवेशक बैठक में कोई व्यवधान ना हो, पूरी दुनिया में मध्यप्रदेश सरकार की छवि कुछ इस तरह से ना जाये कि यहाँ पर तो सत्याग्रही जमीन के लिए लड़ रहे हैं और जिस पर सरकार बार-बार कहती है कि हमारे पास देने को जमीन नहीं है | इससे यह सन्देश जाता है कि सरकार के पास जमीन नहीं है और मध्यप्रदेश में जमीन अधिग्रहण में सरकार मदद नहीं करती है | मध्यप्रदेश में सरकार द्वारा जमीन उपलब्ध न कराने की स्तिथि में निवेशकों को दिक्कत होगी | इस विपरीत माहौल को साधने के लिए ही सरकार ने आनन-फानन में यह फैसला लिया |

सरकार जब इस निवेशक बैठक के पहले निवेशकों को लुभाने के लिए वैश्विक स्तर पर विज्ञापन जारी करती है तो उसमें लिखा होता है सस्ती दरों पर बड़ी परियोजनाओं के लिए एकमुश्त जमीन की उपलब्धता | एंट्री टैक्स और मंडी कर से निश्चित समय तक छूट | इसके अलावा सरकार यह भी कहती है कि तीव्र औद्योगिक विकास में सहायक होना, मध्यप्रदेश की नीति है | इस पूरे प्रपंच को स्वयं मुख्य सचिव आर. परशुराम देखते हैं | इससे स्पष्ट है कि यह सरकार की नाक का सवाल है | सरकार ने इसलिए इस काम को करने के लिए उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय को जिम्मा दिया और जल्दी से जल्दी सरकार ने पिंड छुड़ाना चाहा|

इसके अलावा जब एशियाई मानवाधिकार आयोग ने दुनिया भर में  मध्यप्रदेश सरकार की इस अमानवीय हरकत को साझा किया तो दुनिया भर के लोगों ने सरकार की थू थू की | एशियाई मानवाधिकार आयोग के द्वारा जारी की गयी अपील में पहली बार दुनिया भर के 700 लोगों ने सरकार को अपनी प्रतिक्रिया  दी | यह सरकार के लिए अपने आप में चिंता में डाल देने वाला था |

रही-सही कसर केंद्रीय प्रतिनिधि मंडल के खंडवा पहुंचने की खबर ने पूरी कर दी | प्रतिनिधिमंडल आये और सरकार की उस स्तर भी थू थू हो, उससे पहले सरकार को कुछ तो करना ही था तों उन्होंने यह कर दिया | इससे इन अटकलों पर तो विराम लगता है कि सरकार बहुत ही संवेदनशील तरीके से आदिवासियों के पक्ष में खड़ी है बल्कि सरकार ने केवल अपनी नाक बचाने का जतन किया है | सरकार की मंशा पर सवाल यहाँ भी खड़ा होता है कि उधर जब सत्याग्रही अपने सत्याग्रह के 15वें दिन में प्रवेश कर रहे थे, तब मुख्यमंत्री भोपाल में ही कलेक्टर-कमिश्नर कांफ्रेंस में बोल रहे थे कि वे उद्योगपतियों को जमीन आवंटित करने के लिए दफ्तरों के चक्कर न लगवाएं बल्कि सर्व सुलभ तरीके से उन्हें जमीन अधिग्रहण में भी मदद करें |

सरकार की थू थू तब भी हुई जबकि सरकार ने सत्याग्रहियों के साथ बातचीत करने के लिए एक (अ)शिष्ट मंडल बनाया | यह शिष्ट मंडल इतना अशिष्ट था कि बगैर सत्याग्रहियों की पूरी बात सुने उनसे लड़ कर आ गया | यह कैसा शिष्ट मंडल !!! इस शिष्ट मंडल के सदस्य और अब बनी समिति के अध्यक्ष  कैलाश जी की अभद्रता सोमवार को भी दिखी जबकि उन्होंने एक टीवी चैनल  पर कहा कि हम सरकार हैं और हम पैसा लुटा नहीं सकते है | हरदा के खरदना में चल रहे जल सत्याग्रह पर तल्ख़ टिप्पणी करते उन्हें कहा कि सत्याग्रही वहां से उठें, नहीं तों हम सरकार हैं और शासन करना हमें भी आता है | हालाँकि सरकार ने जिस मंत्री को यह जिम्मेदारी सौंपी है वह स्वयं भू माफिया के रूप में कुख्यात हैं | यह सरकार की संवेदनशीलता के परखच्चे उतारती है |

सरकार की असंवेदनशीलता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सरकार के राहत एवं पुनर्वास विभाग को अभी तह यही नहीं पता है कि मध्यप्रदेश में अलग-अलग विकास परियोजनाओं से कितने लोग विस्थापित हुए हैं | जब सरकार को यही नहीं पता है कि विस्थापित कितने हैं तों फिर उनके पुनर्वास का तो सवाल ही नहीं उठता है | यह सरकार की असंवेदनशीलता है | नर्मदा बचाओ आन्दोलन जिसने सक्रियता दिखाते हुए कुछेक बांधों में विस्थापित जनों की सूचियाँ तैयार करने का काम किया था तो यह आंकडा मिल पा रहा है | अफ़सोस कि सरकार इन्हें अब मध्यस्थ कहती है और बरगलाने का आरोप लगा रही है | सरकारें हमेशा से हाशिए के लोगों को कमतर आंकती रही है और हमेशा देशहित के नाम पर उनकी बलि चढाती रही है | यह सिलसिला भारत आज़ाद होते ही शुरू हो गया था जबकि 1948 में हीराकुंड बाँध के बनते समय तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरु ने कहा था कि यदि आपको तकलीफ उठानी है तो देश के हित में उठानी चाहिए | सवाल यह भी है कि यह भोली जनता तो तकलीफ उठाये लेकिन किसी परियोजना की डीपीआर में कभी किसी मंत्री/मुख्यमंत्री/विधायक का घर क्यूँ नहीं डूबा है या डूबता है ?

एक कारण और भी है कि इसी खंडवा शहर में भारतीय जनता पार्टी का चिंतन शिविर आज से शुरू होने वाला था | इस चिंतन शिविर में पार्टी के कई वरिष्ठ नेता भी भाग ले रहे हैं | यदि इसी खंडवा जिले में सत्याग्रह चलता और सरकार उस पर ध्यान नहीं देती तो इससे पूरे देश में उसकी और थू थू नहीं होती | अतएव सत्याग्रहियों को ऐसा बिलकुल नहीं मानना चहिये कि इस सरकार ने बहुत ही सौहार्द के साथ मांगें मान ली हैं बल्कि उसके पीछे कारक कुछ और भी रहे हैं | सरकार ने इस बार दुधारी तलवार से वार किया है |

बहरहाल हरदा के खरदाना गाँव में अभी भी जल सत्याग्रह जारी है | इंदिरा  सागर बाँध के ये प्रभावित लोग सरकार से सीधा सवाल कर रहे हैं कि जब राज्य की पुनर्वास नीति कहती है कि जमीन के बदले जमीन दी जायेगी तो फिर हमारे हिस्से की जमीन कहाँ है ? सत्याग्रहियों ने सरकार को नाकों चने तो चबवा दिए हैं और पाश के शब्दों में सरकार को बता दिया है कि

जिन्होंने उम्र भर तलवार का गीत गाया है
उनके शब्द लहू के होते हैं
लहू लोहे का होता है
जो मौत के किनारे जीते हैं
उनकी मौत से जिंदगी का सफ़र शुरू होता है
जिनका लहू और पसीना मिटटी में गिर जाता है
वे मिट्टी में दब कर उग आते हैं |

अब सत्याग्रहियों की मुश्किल और बढ़ गयी है क्यूंकि अब उन्हें इस निष्ठुर सरकार से उसकी विपरीत मानसिकता के बावजूद उनसे उपजाऊ जमीन निकलवानी है और लोकतंत्र के सही मायने स्थापित होने में मदद करनी है |

प्रशांत कुमार दुबे

About the Author: Mr. Prashant Kumar Dubey is a Rights Activist working with Vikas Samvad, AHRC’s partner organisation in Bophal, Madhya Pradesh. He can be contacted at prashantd1977@gmail.com

Document Type : Article
Document ID : AHRC-ART-088-2012-HI
Countries : India,
Issues : Land rights,