INDIA: खाद्य सुरक्षा अध्यादेश उर्फ़ रोटी का गेम चेंजर क़ानून – क्या ये देश के साथ केंद्र बनाम राज्य खेल खेल रहे हैं? 

गेम चेंजर है राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्यादेश (यदि बना तो क़ानून); जी हाँ; भारत के मंत्री और नेता इसी भाषा का उपयोग कर रहे हैं. वे मानते हैं कि हम 5 साल के खेल में रोंटियाई, बेईमानी और छल-प्रपंच करते हैं, लोग गुस्साते हैं तो आखिर में ये देश की जनता को यह कह कर बहला देते हैं कि अच्छा चलो 2 रूपए किलो अनाज ले लो और हमें फिर तुम्हारे साथ झूठ-प्रपंच-लूट का खेल खेलने दो. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्यादेश या कानून, जिस रूप में भी लागू किया जाए, यह राज्य और केन्द्र  सरकारों के बीच टकराव पैदा करने वाला है. अब तक यह कहा जाता रहा है कि यह क़ानून कोई खाद्य सुरक्षा नहीं देने वाला है, क्योंकि यह लोगों को केवल एक सीमित मात्रा में अनाज भर पाने का अधिकार देता है. और अपनी जरूरत का एक तिहाई अनाज पाकर लोग इस भुखमरी से मुक्ति के भ्रम में लोकतंत्र के राग नहीं गा सकते. अब बात इससे भी आगे बढ़ चुकी है. तथ्य यह है कि भारत के कई राज्य केंद्र सरकार द्वारा लागू किये जा रहे इस अध्यादेश या क़ानून के ज्यादा व्यापक और गुणात्मक हक दे रहे हैं. इसके लिए उन्हे अपने राज्य के सीमित संसाधनों से भारी बजट भी खर्च करना पड़ रहा है. केंद्र सरकार (मनमोहन सिंह-मोंटेक सिंह-शरद पवार के विशेष सानिध्य में) विधेयक में तीन अहम बदलाव लाने के लिए तैयार नहीं हुई – 1 – अनाज के साथ दाल और खाने का तेल देना (तर्क – इतना उत्पादन नहीं है कि हम खरीद कर लोगों को दे सकें), 2- देश की पूरी जनसँख्या को इसमे शामिल करना ताकि गरीबों के चयन के प्रक्रिया से बचा जा सके (खर्चा ज्यादा होगा और बहुत ज्यादा अनाज खरीदना होगा), 3- हर व्यक्ति के लिए तय 5 किलो की मात्रा को बढ़ाना, इन्हे नहीं माना गया; पर सच यह है कि कई राज्य सरकारें इन तीनों हिस्सों पर अपने खर्चे पर काम कर रही हैं. साफ़ बात है कि केंद्र सरकार द्वारा किये गए प्रावधान मानकों, जरूरत और राज्यों में पहले से ही चलाये जा रहे कार्यक्रमों के प्रावधानों से कम हैं.   यह क़ानून भारत के केन्द्र-राज्य संबंधों में संतुलन रखने वाले संघीय ढांचे पर आघात भी करेगा. देश के उदारवादी अर्थशास्त्री चिंतित हैं कि इस पर केंद्र सरकार का 1.25 लाख करोड़ रूपए का बजट खर्च होगा पर किसी ने आंकलन नहीं किया है कि राज्य सरकारों को भी इस मुद्दे (खाद्य सुरक्षा) पर अपने हिस्से का बड़ा बजट खर्च करना पड़ रहा है. वर्ष 2013-14 में भारत के 14 बड़े राज्य अपने राज्य बजट से 16412 करोड़ रूपए खर्च कर रहे हैं. सवाल यह है कि केंद्र सरकार राज्य सरकारों के साथ समन्वय क्यों नहीं कर रही है? क्या यह राजनीतिक टकराव का मामला है ही है? नहीं! यह जवाबदेहिता का मामला है. और यह उदाहरण है कि किस तरह केंद्र सरकार राज्यों पर शासन करने की कोशिश कर रही हैं.

सबसे पहली बात तो यह कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (कांग्रेस) सरकार द्वारा लाये जा रहे इस क़ानून को भारत का पहला खाद्य सुरक्षा क़ानून कहना बंद करना होगा; क्योंकि छत्तीसगढ़ राज्य की सरकार पहले ही छत्तीसगढ़ खाद्य सुरक्षा क़ानून-2012 बना कर लागू कर चुकी है. यह राज्य वर्ष 2005 से सार्वजनिक वितरण प्रणाली में बहुत से ढांचागत सुधार भी कर चुका है जिससे यहाँ जो 40 फीसदी राशन भ्रष्टाचार की नाली में बह जाता था, अब लगभग 5 से 6 फीसदी जाता है. सबसे बड़ी बात यह है कि लोगों को अनाज मिल रहा है. एक नज़र से देखा जाए तो वह क़ानून केंद्र सरकार के क़ानून से ज्यादा व्यापक है. इसमे सरकार ने खास वंचित तबकों (एकल महिला परिवार, विकलांग, 60 वर्ष से ज्यादा उम्र के व्यक्ति के नेतृत्व वाले ऐसे परिवार जिनके पास आजीविका के स्थाई स्रोत नहीं हैं, लंबी या स्थाई बीमरी से ग्रसित परिवार आदि) के लिए विशेष प्रावधान रखे हैं. याद रखिये कि वर्ष 2004 में सर्वोच्च न्यायलय ने अपने एक आदेश में 6 श्रेणियों का उल्लेख करके सभी को सबसे सस्ता (अन्त्योदय अन्न योजना) अनाज देने को कहा था. इस क़ानून में कुछ को 1 रूपए किलो चावल दिया जाता है. छत्तीसगढ़ के क़ानून में 5 रूपए किलो के मान से चना और 10 रूपए किलो के मान से दाल देने का भी प्रावधान है. इस क़ानून को क्रियान्वित करने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने अपने बजट से 2000 करोड़ रूपए का प्रावधान किया है.

देश का हर राज्य भारत सरकार द्वारा तय गरीबी की रेखा के मापदंड और परिभाषा से परेशान है. सभी राज्य सरकारें आज लगभग 12 करोड़ परिवारों को वंचित और गरीब मानकर सस्ता राशन दे रही हैं. जबकि भारत सरकार 6.5 करोड़ परिवारों के लिए ही सस्ता राशन जारी करती है.  यानी 5.5 करोड़ परिवारों को सस्ता राशन देने का खर्चा राज्य सरकारें वहाँ कर रही हैं.

उत्तर भारत के बारे में यह धारणा बनायी गयी है कि यहाँ ज्यादा गरीब और भुखमरी है. देश की केवल इसी दिशा में मुफ्त या सस्ता अनाज बांटता है, पर सस्ती खाद्यान्न योजनाओं के मामले में यह सच नहीं है. दक्षिण भारत के राज्यों की राजनीति में भोजन (सस्ता चावल या भरपेट थाली खाना) का पिछले 3 दशकों में बहुत महत्त्व रहा है. तमिलनाडु में पहले से ही खाद्य कार्यक्रम चलाने की परंपरा रही है. आज प्रदेश के सभी 1.85 करोड़ पीडीएस हितग्राहियों को 20 किलो चावल मिलता है – मुफ्त; जबकि केंद्र सरकार 48.63 लाख परिवारों को ही गरीब मानती है..  पिछले साल इस कार्यक्रम पर राज्य के 4500 करोड़ रुपय खर्च हुए थे और इस साल 4900 करोड़ रूपए के बजट का प्रावधान है. पहले इस योजना में 2 रूपए किलो (बीपीएल) और 3.50 रूपए किलो (अन्य) का दाम लिया जाता था. 2008 में बी पी एल चावल के दाम 1 रूपए कर दिए गए. वर्ष 2008 में जयललिता की सरकार ने सभी को मुफ्त अनाज की योजना लागू कर दी. तमिलनाडु राज्य केवल यहीं तक सीमित नहीं रहा. वहाँ अम्मा केन्टीन के जरिये 1 रूपए में इडली साम्बर, 3 रूपए में दही-चावल, 5 रूपए में पूरा स्थानीय खाना पूरी गुणवत्ता और सम्मान के साथ दिया जाता है. वहाँ अनिवार्य वस्तुओं की बाज़ार कीमतों को नियंत्रण में रखने के लिए खरीदी और वितरण के लिए भी व्यवस्था है. जिसके लिए 100 करोड रूपए का प्रावधान है.

कर्नाटक नयी योजना की शुरुआत कर रहा है, जो जुलाई 2013 से शुरू होगी. इसमे 98.17 लाख  बीपीएल परिवारों को 30 किलो चावल मिलेगा, 1 रूपए प्रति किलो की दर से.  कर्नाटक इस योजना पर 460 करोड़ रूपए खर्च करेगी. ध्यान दीजिए कि भारत सरकार यहाँ 31.29 लाख परोवारों को ही बीपीएल की श्रेणी में रखती है.

आन्ध्रप्रदेश में 18 साल पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री एन टी रामाराव ने यह कहा था कि प्रदेश का कोई भी परिवार या व्यक्ति भूखा नहीं रहेगा और तब 2 रूपए प्रति किलो चावल वाली योजना लागू की गयी. 2008 के चुनावों में वाय एस राजशेखर रेड्डी ने इसे फिर से चालू किया. और 2011 में उनकी मृत्यु के बाद मुख्यमंत्री बने एन किरण कुमार रेड्डी ने लोगों को 1 रूपए प्रति किलो अच्छी गुणवत्ता का चावल देने की योजना शुरू की. इस्स्ये 2.70 करोड़ परिवारों को प्रभावित किया जा रहा है. अन्त्योदय योजना के लोगों को 35 किलो और बी पी एल परिवारों को 4 किलो प्रति व्यक्ति या 20 किलो अधिकतम के मान से सस्ता राशन मिल रहा है. आँध्रप्रदेश में 50 रूपए प्रति किलो के मान से दाल, 40 रूपए प्रति लीटर के मान से पाम तेल, 15 रूपए के मान से केरोसीन दिया जा रहा है. इस कार्यक्रम पर यह राज्य 2600 करोड़ रूपए खर्च करती है.

कहानी पंजाब दी; केंद्र सरकार मानती है कि वहाँ 4.68 करोड लोक गरीबी की रेखा के नीचे हैं, पर पंजाब सरकार का अनुभव है कि 15.4 लाख लोगों को सस्ते अनाज की जरूरत है. पहले इस अभी को 4 रूपए प्रतिकिलो के मान से 35 किलो गेहूं और 20 रूपए प्रति किलो के मन से 4 किलो दाल मिलती थी. अब इस मात्रा में कमी आई है. पंजाब के लोगों को 25 किलो गेहूं और 2.5 किलो दाल मिल रही है. इस कार्यक्रम को चलाने में पंजाब नागरिक आपूर्ति निगम पर 1593 करोड़ रूपए का कर्जा हो गया है. अभी राज्य सरकार ने इसके लिए 350 करोड़ रूपए का आवंटन किया है.

हिमाचल प्रदेश की सरकार सभी बी पी एल और अन्त्योदय योजना के हितग्राहियों को 35 किलो अनाज उपलब्ध करवा रही है. इतना ही नहीं 20 रूपए में एक किलो साबुत चना, 25 रूपए में एक किलो उडद दाल, 45 रूपए में खाने का तेल भी उपलब्ध करवा रही है. वहाँ जनजातीय यानी आदिवासी क्षेत्रों में गेहूं की आटे और चावल के अतिरिक्त प्रावधान किये गए हैं. हिमाचल प्रदेश विशेष अनुदान योजना के तहत इन सब पर 135  करोड़ रूपए का खर्चा हुआ. यह राशि अब और बढने की सम्भावना है.

मध्यप्रदेश में अनाज की राजनीति – मैं पिछले 3 महीनों से मध्यप्रदेश में एक सरकारी विज्ञापन देख रहा हूँ, जिस पर लिखा है – “एक दिन की मजदूरी में पूरे महीने का राशन”. यह मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री अन्नपूर्णा योजना का विज्ञापन है. इसमे सरकार ने गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों को 1 रूपए किलो नमक, 2 रूपए किलो गेहूं और 3 रूपए किलो चावल देने वाला कार्यक्रम शुरू किया है. माफ कीजियेगा; कोई कार्यक्रम शुरू नहीं किया है बल्कि पहले से चल रही सार्वजनिक वितरण प्रणाली यानी सस्ते राशन की दुकान वाली योजना में कुछ फेरबदल किया है. फेरबदल यह है कि दिल्ली में बैठी केंद्र सरकार गरीबों को 5 रूपए किलो गेहूं और 6.50 रूपए किलो चावल देती है, भोपाल में बैठी मध्यप्रदेश सरकार ने इस राशि को कम करके 2 रूपए और 3 रूपए कर दिया. यानी लोगों को राहत मिली; पर क्या इसे अधिकार माना जाएगा? बात जो सबको जान लेना चाहिए कि मध्यप्रदेश सरकार सस्ते राशन की कीमत को और कम क्यों कर रही है; जबकि वास्तव में उसे हर परिवार को मिलने वाली अनाज की मात्रा को बढ़ाना चाहिए था. पीडीएस के तहत हर गरीब (इसका अब तक सही आंकलन नहीं हुआ है कि कौन गरीब है और किन आधारों पर) परिवार को 35 किलो राशन दिया जाएगा, पर मध्यप्रदेश में 20 किलो अनाज ही दिया जाता है. कारण यह है कि भारत सरकार 42 लाख परिवारों को ही गरीब मान कर 35 किलो राशन देती है, जबकि मध्यप्रदेश में 70 लाख परिवार गरीबी की रेखा में दर्ज हैं, इसलिए सबको 35 किलो अनाज देने के बजाये वह 20-20 किलो का प्रावधान करके कार्यक्रम चला रही है. बहरहाल सरकार का खर्च जरूर बढ़ा है. अप्रैल 2008 यानी पिछले विधानसभा चुनावों के पहले मध्यप्रदेश सरकार ने पहली बार राशन को और सस्ता किया था तब 440 करोड़ रूपए का कुल खर्च हो रहा था. ताज़ा योजना से राज्य का खर्चा 420 करोड़ रूपए बढ़ जाएगा और इस योजना से 3.55 करोड़ की जनसँख्या को प्रभावित किया जा सकेगा. पिछले दिनों (जून 2013 में) मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी का अधिवेशन हुआ तो पार्टी के बड़े नेताओं और सांसद तक ने कहा कि ये 1 रूपए-2 रूपए के झुनझुनों से हम अगला चुनाव न जीत पायेंगे.

पश्चिम बंगाल में वर्ष 2009 तक उतने ही परिवारों को सस्ता राशन मिलता था, जो संख्या योजना आयोग ने तय की थी; पर ममता बनर्जी ने इसमे 40 लाख लोगों को और जोड़ा. राज्य सरकार आज इस कार्यक्रम पर 625 करोड़ रूपए खर्च कर रही है.

राजस्थान भी अब पीछे नहीं है. 2013-14 के बजट में प्रदेश के सभी बीपीएल-अन्त्योदय परिवारों को एक रूपए प्रतिकिलो के मान से गेहूं देने की योजना शुरू कर दी गयी है. अनुमान है कि इस पर 550 करोड़ रूपए का व्यय होगा. गेहलोत सरकार 10 रूपए प्रति किलो शकर और एपीएल परिवारों को 5 रूपए प्रति किलो आटा देने के लिए भी 350 करोड़ रूपए खर्च कर रही है.

हरियाणा सरकार सोनिया जी के अध्यादेश को एक कदम आगे जाकर लागू करने वाली है. हुड्डा जी ने कहा है कि हम 20 रूपए प्रतिकिलो के मान से 2.5 किलो दाल देंगे. उनका कहना है कि अब तक केवल 12 लाख लोग गरीबी की रेखा में थे, पर हमारी योजना से 27.84 लाख परिवारों को खाद्य सुरक्षा का हक मिलेगा. भारत सरकार के मुताबिक हरयाणा में 7.89 लाख परिवार ही गरीब हैं,.

आसाम सरकार वर्ष 2010 में इस योजना में अपनी जरूरत के मुताबिक बदलाव कर चुकी है. वहाँ पहले से 20 लाख परिवारों को 20 किलो प्रतिमाह के मान से अनाज मिल रहा था. तीन साल पहले आसाम सरकार ने “एपीएल की निचली पायदान” के रूप में एक नयी श्रेणी रच दी और 20 लाख अन्य परिवारों को 5.65 रूपए प्रति किलो के मान से अनाज देना शुरू कर दिया. इस पर लगभग 350 करोड़ रूपए का खर्चा हो रहा है. भारत सरकार 18.36 लाख लोगों के लिए ही सस्ता राशन मुहैया करवाती है, शेष का खर्चा राज्य वहाँ करता है.

केंद्र सरकार यहाँ ३२.९८ लाख परिवारों को गरीबी की रेखा के नीचे मानती है पर ओडिशा सरकार ने फरवरी 2013 में प्रदेश के 48 लाख गरीब परिवारों को 1 रूपए प्रतिकिलो के मान से 25 किलो चावल देने वाली योजना शुरू की. 2009 के चुनावों में बीजू जनता दल ने 2 रूपए किलो चावल का वायदा किया था और नवीन पटनायक सत्ता में आये थे. इस 1 रूपए वाली नयी योजना से ओडिशा सरकार पर 1315 करोड़ रूपए का भार पड़ेगा.

केरल एक बेहतर विकसित राज्य के रूप में जाना जाता है, पर वह भी अनाज-रोटी की राजनीति के दूर नहीं रह सका है. हाला ही में वह 30 बच्चों की कुपोषण से मौत की ख़बरों ने सबको चौंका दिया है. राज्य के कुल 79 लाख परिवारों में से 14 लाख गरीबी की रेखा के नीचे की सूची में शामिल हैं. इन्हे 1 रूपए की कीमत पर 25 किलो चावल और 2 रूपए की कीमत पर 8 किलो गेहूं मिलता है. अन्त्योदय परिवारों को 1 रूपए प्तैकिलो की दर से 35 किलो चावल दिया जाता है. ए पी एल परिवारों के लिए 10 किलो चावल का आवंटन होता है 8.90 रूपए और 3 किलो गेहूं का 6.70 रूपए की दर से. केरल में 65 वर्ष से ज्यादा उम्र वाले निराश्रित परिवारों को 10 किलो अनाज मिलता है – मुफ्त.

केरल सरकार ने वर्ष 2009 में गरीबी का सर्वेक्षण करवाया था, जिसमे पता चला कि राज्य में 32 लाख परिवार गरीबी की रेखा के नीचे हैं. ऐसे गरीब परिवार जिनके नाम गरीबी की रेखा की सूची में नहीं हैं उन्हे 19 किलो चावल 6.20 रूपए और 7 किलो गेहूं 4.70 रूपए प्रति किलो के मान  से वितरित किया जाता है. केरल खाद्य रियायत के रूप में लगभग 760 करोड़ रूपए खर्च कर रही है.

उत्तरप्रदेश सरकार ही ऐसी सरकार है जो केंद्र शासन द्वारा तय गरीबी की रेखा के परिवारों की संख्या का ज्यों का त्यों पालन कर रही है. वहाँ 1.07 करोड़ परिवारों को बी पी एल और अन्त्योदय अन्न योजना का 35 किलो राशन दिया जा रहा है. इसके साथ ही वहाँ मटर की पीली दाल का अतिरिक्त प्रावधान किया गया है. बहुत अलग प्रावधान न होने के बावजूद राज्य सरकार अन्न पूर्ति योजना पर 901 करोड रूपए का प्रावधान कर चुकी है. यह अलग बात है कि उत्तर प्रदेश में सस्ते राशन का बड़ा संगठित घोटाला चलता रहा है.

इस नज़रिए से तो सबको खाद्य सुरक्षा का हक देना, दालें और खाने का तेल उपलब्ध करवाना और एक बेहतर व्यवस्था कायम करना संभव है. हमें यह भी देखना होगा कि बात केवल उस योगदान की न हो, जो केंद्र सरकार करने वाले है. इस क़ानून के क्रियान्वयन में राज्य सरकारें मौन दर्शक नहीं हैं. वे ही उत्पादन सुनिश्चित करवाती हैं, वे ही आज अनाज की खरीदी में मुख्य भूमिका निभाती हैं और वे अपने संसाधन भी खर्च करती हैं.  हमें यह याद रखना होगा कि राज्य सरकारें सस्ते राशन की योजना में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं.

 

ठक ठक ठक की आवाज़ होती है

भूख मेरे दरवाज़े पर दस्तक देती है,

बिन बुलाई मेहमान है

आती है और ठहर जाती है,

मैने तो दरवाज़ा खोला ही न था

घुस आती है रिस-रिस कर

टूटी दीवार की दरारों में से,

बड़ी होती जाती है बहुत तेज़ी से

इतनी कि उठा लेती है मुझे अपनी गोद में

सहलाती है और झूला सा झुलाती है

मैं सो जाता उसकी आगोश में

हमेशा के लिए,

यदि रोटी आकर न कर देती

ठक ठक ठक मेरे दरवाज़े पर;

 

About the Author: Mr. Sachin Kumar Jain is a development journalist, researcher associated with the Right to Food Campaign in India and works with Vikas Samvad, AHRC’s partner organisation in Bophal, Madhya Pradesh. The author could be contacted at sachin.vikassamvad@gmail.com Telephone:  00 91 9977704847

Document Type : Article
Document ID : AHRC-ART-083-2013-HI
Countries : India,