INDIA: बच्चों को भूख की शिक्षा के पक्ष में 

बिहार में २७ बच्चों का जीवन मध्यान्न भोजन योजना ने छीना है या व्यावस्था ने; इस सवाल का जवाब खोजना बहुत कठिन तो नहीं था! आज की तारीख में चल रही बहसों से जो संकेत उभर कर आ रहे हैं, हमें उन्हे समझना चाहिए. पहला संकेत तो यह है कि यह योजना भिक्षावृत्ति की योजना है. बच्चों को स्कूल जाना चहिये शिक्षा पाने के लिए; इस तरह की योजना चला कर हम समाज को शिक्षित करने के अपने मकसद से भटक रहे हैं. इस तरह का विशार प्रस्तुत करने वाले विद्वानों के दिमाग में विचार तो हैं, पर संवेदनाएं और करुणा नहीं है. वे इसे भी अर्थव्यवस्था और सांख्यिकी का एक विषय मान कर धरना बनाते हैं और उसे स्थापित करने की हरसंभव पहल करते हैं. वे कहते हैं कि सबको शिक्षित कर दो, सरकार को भोजन योजना चलाने की जरूरत जरूरत नहीं पड़ेगी. वे बहुत ही शातिराना अंदाज़ में यह तथ्य को छिपा जाते हैं कि भूखा और कुपोषण के साथ जीने वाले समाज को यदि आप रोज़गार कए अवसर उपलब्ध करवाएंगे तब भी वे उनका उपयोग नहीं कर सकेंगे, क्योंकि भूख उनकी शारीरिक और मानसिक क्षमताएं छीन लेती है. इसका मतलब यह है कि यदि हमें उनकी क्षमताएं वापस लौटानी हैं तो उन्हे पोषण का अधिकार देना होगा. पोषण का अधिकार बच्चे को जन्म के पहले से शुरू करके ५ साल तक की उम्र तक देना होगा क्योंकि उनका ९० प्रतिशत विकास तो इसी उम्र तक हो चुका होता है. यदि हम यहाँ बछ्कों को कुपोषण से नहीं बचा पाए तो जीवन भर इसका असर बना रहेगा और उसकी क्षमताएं विकसित न हो सकेंगीं. वर्ष १९९५ में एक अध्ययन से पता चला कि ८९ प्रतिशत बच्चे, जो स्कूल में हैं, वे भूखे होते हैं. उनके भूखे होने के कई करान हो सकते हैं, पर इलाज़ तो एक ही है कि उन्हे खाना मिले. इस अध्ययन से यह भी पता चला कि भूख उनकी स्मरण शक्ति को कमज़ोर कर रही है ज्ञान ग्रहण करने क्षमता कमज़ोर कर रही है. मतलब साफ़ था कि केवल शिक्षा व्यवस्था को सुद्रढ़ करना पर्याप्त नहीं है. हमें पोषण की सुरक्षा भी सुनिश्चित करना होगी. और तब मध्यान्ह भोजन योजना की शुरुआत हुई. ऐसा नहीं है कि इस योजना में केवल गरीब बच्चों के लिए पोषण युक्त भोजन की बात कही गयी थी; उन ८९ प्रतिशत भूखे बच्चों में हमारे समाज के माध्यम और उच्च वर्ग के बच्चे भी शामिल थे; क्योंकि हमारा समाज तब भी और आज भी बच्चों की पोषण सम्बन्धी जरूरतों के बारे में पूरा शिक्षित तो नहीं ही था और न है. आज इस योजना में १२.१८ लाख स्कूलों में १०.५२ करोड़ बच्चों को रोज भोजन मिलता है. दुनिया का सबसे बड़ा स्कूल भोजन कार्यक्रम है यह. क्या इसका प्रबंधन इतना आसान है? इस कार्यक्रम के कारण अब तक ३ करोड़ वे बच्चे स्कूल के भीतर जा पाए जो भूख या गरीबी की कारण शिक्षा से वंचित रह जाते. जब कोई इस योजना को बंद करने की वकालत करता है तो वह लकाहों बच्चों की भुखमरी और शिक्षा से उन्हे वंचित रखने के विचार का पालन करता है.  मध्यप्रदेश में १.१४ लाख स्कूलों में ९० लाख बच्चे हर रोज मध्यान्ह भोजन योजना में खाना खाते हैं. हम उम्मीद करते हैं कि २५० अधिकारी हर रोज इसकी निगरानी करेंगे तो क्या यह उम्मीद करना वाजिब है? सच तो यह है कि १८ वर्षों में इस बात के लिए कोशिश नहीं हुई कि इस योजना की निगरानी का पूरा अधिकार स्थानीय संस्थाओं और समुदाय को सौंपा जाए. हम यह नहीं कहते कि समुदाय कोई दूध की धुली  संस्था है, पर अपने बच्चों के प्रति उसकी जवाबदेहिता ज्यादा होने चाहिए. अब से दो साल पहले भारत सरकार के लिए  इस योजना की समीक्षा करते हुए हमने यह सुझाव दिया था कि कभी बच्चों से भी तो बता कीजिये; आप तो बहुत अंकेक्षण करते हैं, एक बार बच्चों को इसका अंकेषण करने दीजिए. इस योजना की ५ स्तरों पर निगरानी होती है और रिपोर्ट भी आती है; पर कार्यवाही का कोई ठौर-ठिकाना नहीं होता है. एक तरह से सरकार यहाँ अपराधी नज़र आती है, उस पर कौन कार्यवाही करेगा?

भर पेट रहने वाला विशेषज्ञ या व्यक्ति हमेशा सरकारी भोजन योजना का विरोध करेगा, क्योंकि उसे लगता है कि बच्चों-महिलाओं को सरकार भोजन क्यों दे! ये कभी अपने आप को उन बच्चों की जगह पर महसूस ही नहीं कर पाते हैं जो भूख से साथ जीते हैं. जाने-माने पत्रकार पी साईनाथ ने आँध्रप्रदेश से गरीबी पर एक खबर में लिखा कि एक जिले में बच्चे और समुदाय यह मांग कर रहे हैं कि रविवार को भी स्कूल खुलना चाहिए और सालाना छुट्टियाँ भी बंद कर देना चाहिए. एक बार तो लगा कि यहाँ शिक्षा के प्रति जबरदस्त लगन और जागरूकता है; पर अध्ययन करने पता चला कि बच्चे हर रोज का स्कूल इसलिए चाहते थे ताकि उन्हे हर दिन भोजन मिल सके. जिस दिन वहाँ स्कूल की छुट्टी होती थी, बच्चे भूखे रहते थे.

बिहार की दुर्घटना के बाद अब दो विचार फिर से बहुत जोर पकड़ रहे हैं. पहला विचार है – भोजन स्कूलों में न पकाया जाए और बच्चों को डिब्बा या पैकेट बंद भोजन देना शुरू कर दिया जाए. वास्तविकता यह है कि इस तरह की नीति लाने के लिए केवल कम्पनियाँ ही नहीं मीडिया और हमारे सांसद भी पैरोकारी कर रहे हैं. इस योजना के तहत स्कूलों में केवल गरम और पका हुआ भोजन दिए जाने का प्रावधान है. कई ठेकेदार और कम्पनियाँ इस बात की जुगत में हैं कि मध्यान्ह भोजन में डिब्बा बंद भोजन का अप्रव्धान कर दिए जाए. इससे इन कंपनियों को लगभग ४० हज़ार करोड़ रूपए का धंधा तो मिलेगा ही. इसके साथ की वे एक ही तरह का भोजन उपलब्ध करवा कर बच्चों को भोजन की स्थानीय और सामाजिक संस्कृति से भी दूर कर पायेंगे ताकि भोजन (बाज़ार में जिसे जंक फ़ूड कहा जाता है) का बाज़ार और विस्तार पा सके. इसके साथ ही हम जानते हैं कि जिस तरह से भारत गरीबों पर दवाइयों के परीक्षण  का केंद्र बन गया है, उसी तरह से रासायनिक पोषक तत्त्व बनाने वाली कम्पनियाँ फ़ूड फोर्टिफिकेशन के प्रयोग करना चाहती हैं. इस योजना में वे बच्चों पर पोषक तत्वों के प्रयोग भी करना चाहती हैं. यदि डिब्बा बंद भोजन का प्रावधान आ गया तो गांव और बस्ती के लोगों के लिए इस योजना में निगरानी करने का कोई स्थान नहीं होगा और यह कभी पता भी नहीं चल पायेगा कि स्वच्छता के किन मानकों का उल्लंघन हो रहा है.

दूसरा विचार यह आया है कि क्यों न खाने के बजाये इन बच्चों को एक निर्धारित राशि दे डी जाए. इसे हम केश ट्रांसफर कहते हैं. सवाल यह है कि यदि परिवार में नकद राशि आएगी तो यह कैसे सुनिश्चित होगा कि उसका उपयोग बच्चे के भोजन के लिए ही होगा. उस स्थिति में परिवार के वयस्क और खास तौर पर पुरुष उस राशि का उपयोग तय करेंगे. कुछ हो सकता है सट्टे में इसका उपयग करें, और हो सकता है कुछ इससे शराब खरीदें. यदि यह न भी हुआ तो संभव है इससे केबल टीवी का मासिक भुगतान किया जाये. नकद हस्तांतरण भी बिना निगरानी के फेल ही होगा और सवाल यह है कि जब स्कूल की निगरानी नहीं हो प् रही है तो हर बच्चे के सन्दर्भ में ये निगरानी करेगा कौन? हमारी परंपरा में शिक्षा व्यवस्था में पोषण युक्त भोजन का समान महत्त्व रहा है. आश्रम और गुरुकुल के प्रमाण हमारे सामने हैं. बहरहाल यह बात सही है कि वहाँ सामाजिक भेदभाव और बहिष्कार का बोलबाला था पर पोषण और शिक्षा का सम्बन्ध तो स्थापित ही है. संकट यह है कि हमारे नीति निर्माताओं ने इसे गरीब बच्चों की भोजन योजना के रूप में प्रस्तुत करने का षड़यंत्र रचा, जो सफल होता नज़र आता है. एक तर्क यह भी आ रहा है कि इस योजना से शिक्षा व्यवस्था चौपट हो रही है. जो विद्वान लोग यह तर्क दे रहे हैं वे बेहद ढपोरशंख हैं. वे  इतना भी नहीं जानते कि बच्चे स्कूल में केवल भोजन इसलिए पा रहे हैं क्योंकि वहाँ शिक्षा व्यावस्था ध्वस्त है. सरकार खुद अपने स्कूलों की हत्या कर रही है. सरकार वहाँ अप्रशिक्षित शिक्षकों को रखती है, वहाँ किताबें नहीं होती हैं, वहाँ बच्चों से हिंसा की जाती है. वहाँ भेदभाव और अपमान हो रहा है. और तर्क दिया जा रहा है कि मध्यान्ह भोजन योजना के कारण बच्चे शिक्षा ग्रहण नहीं कर पा रहे हैं. मुझे आश्चर्य है कि जिस योजना से शिक्षा व्यवस्था बेहतर हो सकती है, जिसने लाखों बच्चों को स्कूल बुलाया है, उसके खिलाफ यह माहौल केवल इसलिए तो नहीं है कि बिहार में २७ बच्चों की दर्दनाक मृत्यु हो गयी है. यदि बिहार ही कारण है तो यह भी जानिए कि टीकाकरण के कारण बीमारी के १७८९ प्रकरण आये और मध्यप्रदेश में ही १४ बच्चे मरे हैं, विटामिन ए का भी रिएक्शन हुआ है…..क्या ये भी बंद कर दें! जनाब जरा सोच-समझ कर तर्क दीजिए!

About the Author: Mr. Sachin Kumar Jain is a development journalist, researcher associated with the Right to Food Campaign in India and works with Vikas Samvad, AHRC’s partner organisation in Bophal, Madhya Pradesh. The author could be contacted at sachin.vikassamvad@gmail.com Telephone:  00 91 9977704847

Document Type : Article
Document ID : AHRC-ART-080-2013-HI
Countries : India,