INDIA: नयी सरकार के सामने पकी-पकाई चुनौतियां

भारत के लोगों ने भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को पूर्ण ही नहीं, सम्पूर्ण बहुमत दिया है. यह इस बात का भी संकेत है कि अब वह कोई अधूरा काम न करे, यही जनमत उससे अपेक्षा करता है. भारतीय जनता पार्टी की जड़ें मूलतः स्वदेशी की विचारधारा में रहीं हैं, परन्तु १९९१ में अपनाई गयी आर्थिक नीतियों ने राजनीति और अर्थनीति, दोनों में से ही देश ज्ञान, विज्ञान, संसाधन, प्रबंधन और सामुदायिक नियंत्रण के पहलुओं को छील-छील कर बाहर निकाल फेंका. हमनें पूरी तरह से उन नीतियों को अपनाया, जो अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों और पूँजी वादी अर्थव्यवस्थाओं के हित में थीं. भारत के नीति बनाने वालों ने हमेशा यही तर्क दिया कि आर्थिक विकास के लिए पूँजी चाहिए और पूँजी हमारे पास नहीं है, पूँजी तो “कार्पोरेशंस और अमेरिका” के पास है. कार्पोरेशंस और अमेरिका ने कहा कि हम निवेश करेंगे, यदि भारत की व्यवस्था और सरकार हमारे कहे मुताबिक नीतियां बनाये. परिणाम आप देख लीजिए एक तरफ सकल घरेलू उत्पाद बढ़ता रहा, दूसरी तरफ नदियाँ सूखती गयीं, हवा में जहर फैलता गया, भुखमरी और बेरोज़गारी बढ़ती गयी, जंगल खतम होते गए, जमीन पर कंपनियों का कब्ज़ा होता गया और हमारे राजस्व को भी कम कर दिया गया. यह कैसा विकास है जिसमें सरकार तरह-तरह की कंपनियों को एक साल में 2 लाख करोड़ रूपए की “कर और शुल्क छूट” देती है. वे कम्पनियाँ 1 करोड़ रूपए के व्यापार पर बस 5 व्यक्तियों को रोज़गार देती हैं. और हम फिर भी हम जीडीपी-जीडीपी जपते रहते हैं.

अब जबकि राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन को भरपूर जनमत मिला है, तो अब अपेक्षा की जाना चाहिए कि वे भारत और भारत के लोगों के हितों को केंद्र में रख कर आर्थिक विकास की नीतियां बनायेंगे. जरूरी होगा कि आर्थिक विकास को मानव विकास और सामाजिक बदलाव से जुडा करके न देखा जाए. पिछले दो दशकों में यही धारणा स्थापित हो गयी है कि मानव विकास (शिक्षा, स्वास्थ्य, लैंगिक समानता, आदिवासी अस्मिता और दलितों का सशक्तिकरण आदि) जैसे क्षेत्रों पर किया जाने वाला निवेश आर्थिक विकास और आर्थिक विकास के लिए किये जाने वाले प्रयासों को नुकसान पंहुचाता है. भारतीय जनता पार्टी ने लोगों की क्षमताओं और कौशल के विकास पर बल देने की बात की है. जब तक बच्चों में कुपोषण और एनीमिया जैसी स्थितियों को खत्म नहीं किया जायेगा, तब तक हम एक सशक्त और सक्रीय व्यक्ति पैदा नहीं कर सकते हैं, जो किसी के सामने झुकने के लिए मजबूर न हो; तो क्या मानव विकास के लिए निवेश किये बिना आर्थिक विकास लाया जा सकेगा, इस पर सरकार को अभी अपना नजरिया आधिकारिक रूप से स्पष्ट करना होगा.

सबसे शुरूआती क़दमों के तौर पर राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक गठबंधन की सरकार को पेट्रोलियम पदार्थों की नीति पर पुनर्विचार करना चाहिए क्योंकि इस मामले में कुछ भी गलत होने पर हर पल हर व्यक्ति सरकार को कोसता है और गुस्सा दिखाने की एक मौका खोजता है. दूसरी बात यह है कि आदिवासियों को वनों पर हक देने वाले वन अधिकार क़ानून का आदिवासियों के नज़रिए से क्रियान्वयन सुनिश्चित करे; न की खनन कंपनियों और वन विभाग के नज़रिए से, जो नहीं चाहते हैं कि इस क़ानून के जरिये आदिवासियों को संसाधनों पर ऐसे हक मिलें, जो वास्तव में उनकी जिंदगी सकारात्मक रूप से बदला सकते हैं.

इस व्यवस्था में “हितों के टकराव – कानफ्लिक्ट आफ इंटरेस्ट” ने बहुत नुक्सान पंहुचाया है. बच्चों के खाने का सामान बनाने वाली कंपनी के लोग भारत सरकार की नीति बनाने वाली समिति में होते हैं, उच्च शिक्षा संस्थान चलने वाले लोग शिक्षा की नीति बनाते हैं. इसका मतलब यह है कि वे अपने धंधे के हित देख कर नीति बनाते हैं, न कि जनहित देख कर. शुरू में ही एनडीए सरकार को तय करना होगा कि नीति बनाने के काम में कोई भी ऐसा व्यक्ति या संस्थान प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल न हो, जिसके हित उस नीतिगत विषय से सम्बंधित हों.

अब कार्पोरेट्स को करों-राजस्व की माफ़ी देने की नीति बदली जाना चाहिए. यह एक बड़ा कारण है, जिसके चलते हमारा टेक्स-जीडीपी (जीडीपी के अनुपात में कर संग्रहण) अनुपात 17 प्रतिशत के आसपास है. यदि हम इसे बढाकर 23 प्रतिशत पर ला सके तो देश में हर बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, हर व्यक्ति को रोज़गार, सभी को सुरक्षा, सभी को सामाजिक सुरक्षा, बच्चों को संरक्षण और पोषण सहित जीवन का हर अधिकार, पीने का साफ़ पानी दिया जा सकता है. आज कई लोग इसलिए भी टेक्स नहीं देना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि निजी स्वास्थ्य सेवाएं भयंकर महंगी हैं. बच्चों की शिक्षा बहन को देह व्यापार करने के लिए मजबूर कर देती है या घर बिकवा देती है. यदि विश्वास अर्जित करना है, तो सरकार को लोगों की बुनियादी सुविधाएँ बतौर हक उपलब्ध करवाना होंगी. यह कोई कल्पना नहीं है, यह संभव है, यदि सरकार गडबड़ी दूर करने के लिए तैयार हो जाए तो!

प्राकृतिक संसाधनों की नीलामी को नियंत्रित किया जाना चाहिए. यह सही है कि प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग विकास के लिए जरूरी है, बेहतर होगा कि समुदाय के जरिये इन संसाधनों के उपयोग की नीति बनायीं जाए. साथ में सूचक यह हो कि एक सीमा के बाद संसाधनों का दोहन नहीं किया जायेगा. इस तरीके से हम तेज़ी से बढ़ रही गैर-बराबरी और क्षेत्रीय टकरावों को भी नियंत्रित कर पायेंगे.

तेल/पेट्रोलियम के मामले में सरकार को अपनी नीति में बदलाव लाने की जरूरत है, क्योंकि इससे सार्वजनिक परिवहन और हर वस्तु की कीमतों का सीधा जुड़ाव है, जैसे ही डीज़ल-पेट्रोल की कीमतें बढती हैं, वैसे ही टमाटर और कपड़े के दाम बढ़ जाते हैं. लोगों के दैनिक जीवन और बुनियादी जरूरतों पर इसके प्रभावों को समझते हुए जिम्मेदार उपभोग प्रवर्ति विकसित करने की प्रक्रिया शुरू हो. वर्ष 2004 में कच्चे तेल की कीमत 30 डालर प्रति बैरल थी, जो अब बढ़ कर 100 डालर तक पंहुच चुकी है. हमें यह समझना होगा कि हम हमेशा बढती हुई कीमतों के साथ सामंजस्य बिठा कर नहीं चल पायेंगे, हमें अपने उपभोक्ता व्यवहार को तार्किक और जिम्मेदार बनाना होगा. एक तरफ हम तेल की कीमतें बढ़ाते रहें, और दूसरी तरफ उसका उपभोग गैर-जिम्मेदार तरीके से होता रहे, इससे मसला हल न हो पायेगा.

विकास के कार्यक्रमों, जैसे महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना, बेकवर्ड रीजन ग्रांट फंड, बुंदेलखंड पैकेज आदि का विश्लेषण करने की जरूरत है. इन कार्यक्रमों में बड़े पैमाने पर आर्थिक संसाधनों का उपयोग हो रहा है, निगरानी के अभाव, शिकायत निवारण व्यवस्था और जन-मूल्यांकन की व्यवस्था के अभाव के कारण ऐसे कार्यक्रम अपने मकसद में सफल नहीं हो पाए. शायद नयी सरकार यह समझ सके कि निगरानी और शिकायत निवारण व्यवस्था न होने के कारण भ्रष्टाचार पनपता है और मशीनरी गैर-जवाबदेही के साथ काम करती है. मनरेगा के तहत आठ सालों में 2 लाख करोड़ रूपए से 7 लाख काम शुरू किये गए, परन्तु आंकड़े बताते हैं कि केवल 20 प्रतिशत काम ही पूरे हो पाए. लोगों को का तो समय पर काम मिला , न ही बेरोज़गारी भत्ता मिला; जिन्हें काम मिला पर मजदूरी नहीं मिली. 80 हज़ार करोड़ रूपए की मजदूरी का भुगतान देरी से हुआ पर लोगों को देरी मजदूरी भुगतान पर मिलने वाला मुआवजा नहीं मिला, जो की क़ानून का प्रावधान है. देखना यह है कि क्या नयी सरकार, लोगों के प्रति जवाबदेह होने के लिए कोई कदम उठाना चाहेगी या नहीं! इसमें अभी भी शंका इसलिए है क्योंकि छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, गुजरात जैसे भारतीय जनता पार्टी शासित प्रदेशों में भी मनरेगा का लचर क्रियान्वयन हुआ है.

आज की स्थिति में 19.20 करोड़ लोगों को रोज़गार की जरूरत है. एक बड़ा उद्द्योग प्रत्यक्ष रूप से 600 लोगों को रोज़गार देता है, परन्तु 300 से 500 एकड़ जमीन पर कब्ज़ा जमा लेता है. इसके दूसरी तरफ, यदि भू-सुधार की मंशा दिखाई जाए, तो इतनी जमीन से 2000 लोगों को प्रत्यक्ष रूप से रोज़गार मिल सकता है. 19.20 करोड़ लोगों को केवल औद्योगिकीकरण या सेवा क्षेत्र से ही रोज़गार नहीं दिया जा सकेगा. इसके लिए भारत में क्षेत्रीय संदर्भ को ध्यान में रखते हुए उनके मौजूदा कौशल को भी स्थान देते हुए लघु और स्थानीय उद्योगों को प्राथमिकता देना होगी. हांलाकि यह सही है कि इससे स्टाक एक्सचेंज में सूचीबद्ध 500 बड़ी कंपनियों को नुक्सान उठाना पढ़ेगा. जिसे हम आयातित भाषा में टिकाऊ विकास कहते हैं, वह कभी भी बाहरी नियंत्रण से नहीं हो सकेगा. अभी मान्यता यह है कि हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था ऐसी बनान चाहिए जो एक कौशल संपन्न बुनकर को किसी काल सेंटर में काम करने लायक बनाये. इस तरह की नीति का मकसद यह रहा कि लोग लघु और स्थानीय घरेलू उद्योगों से निकालें और अन्य क्षेत्रों में जाएँ, ताकि स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग कुटिल पूंजीवादी विकास के लिए किया जा सके.

अब नयी सरकार को देखना होगा कि हम अपने विकास के लिए अपनी परिभाषा, देशज परिभाषा कैसे गढ़ सकते हैं. बाजार और कुटिल पूँजीवाद के इशारों पर विकास की परिभाषा न गढ़ी जाए. अब कदम कदम पर इस सरकार को साबित करना होगा कि वह किसकी सरकार है?

Mr. Sachin Kumar Jain is a development journalist and researcher who is associated with the Right to Food Campaign in India and works with Vikas Samvad, AHRC’s partner organisation in Bhopal, Madhya Pradesh. The author could be contacted at sachin.vikassamvad@gmail.com Telephone: +91 755 4252789.

Document Type : Article
Document ID : AHRC-ART-038-2014-HI
Countries : India,