INDIA: व्यवस्था छीन लेती है विकलांगों से मतदान का अधिकार

लोकसभा चुनाव 2014 के पहले चरण के मतदान के दौरान मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के एक गाँव में एक विकलांग व्यक्ति मतदान करने पहुंचा। इस व्यक्ति मतदान को केन्द्र के अंदर नहीं जाने में काफी मशक्कत करनी पड़ी, क्योंकि उस केंद्र पर रैम्प नहीं था। अंदर जाकर भी उसके लिए अपने मत का उपयोग करना आसान नहीं था,  क्योंकि ईवीएम मशीन लगभग साढ़े तीन फीट की उंचाई पर थी और उस ऊंचाई तक पहुंचना उनके लिए लगभग असंभव ही था। कुल जमा यह व्यक्ति वोट तो डाल पाया, लेकिन वैसे नहीं जैसे कि सब वोट डाल रहे थे| यहीं से दिमाग में विचार कौंधा कि क्या विकलांग व्यक्तियों को अपने मत का वैसे ही प्रयोग का अधिकार नहीं है जैसे कि दूसरे नागरिकों को है| जवाब है, है |तो फिर सवाल है कि यदि अधिकार है तो फिर उस अधिकार को पाने के लिये व्यापक प्रबंध क्यों नहीं ? हमने इस समस्या का एक सिरा पकडकर इसे उधेड़ने की कोशिश की तो पाया कि यहां पर तो बहुत ही घालमेल है। आईये जरा इस समस्या को इसकी पृष्ठभूमि के साथ समझा जाये। हम इस पूरी समस्या को मतदान के अधिकार, चुनाव पूर्व और दौरान की प्रक्रियाओं के लिहाज से समझने की कोशिश करेंगे|

इस पूरी समस्या को ज़रा अधिकार के दृष्टिकोण से समझा और कुरेदा जाये तो हम पाते हैं कि भारत के प्रत्येक नागरिक को अपना मत देने की गारंटी हमारा संविधान देता है। यह एक मौलिक अधिकार है| संविधान की धारा 326 बहुत ही सामान्य तरीके से कहती है कि भारत का कोई भी वयस्क नागरिक (18 वर्ष से ज्यादा) अपने मत का प्रयोग कर सकता है और उसे किसी अन्य आधार पर अपने मत का प्रयोग करने से रोका नहीं जा सकता, फिर चाहे वह मानसिक रूप से अस्वस्थ हो तब भी| जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 21(ई) भी इस बात की मुखालफत करती है| अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में मानवाधिकारों के संरक्षण के लिए किए गए समझौते (1948) तथा 1996 में सिविल और पालिटिकल अधिकारों पर हुये अंतर्राष्ट्रीय समझौते में भी सभी व्यक्तियों को सामान रूप से मत देने का अधिकार है | और केवल विकलांगता को ध्यान में रखकर हुए संयुक्त राष्ट्र विकलांग व्यक्तियों का अधिकार समझौता 1996, की धारा 29 किसी भी तरह की विकलांगता से पीड़ित व्यक्ति को उपयुक्त और समान अवसरों के साथ अपने मत का अधिकार देता है| यानी यहां पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि भारत के प्रत्येक व्यस्क व्यक्ति को अपना मत देने का अधिकार है यानि विकलांगों को भी समान रूप से मत देने का अधिकार है।

विकलांगता क्या है ? निःशक्त व्यक्ति (समान अवसर, अधिकार, संरक्षण और पूर्ण भागीदारी) (पीडब्ल्यूडी कानून),1995 के मुताबिक चिकित्सकीय दृष्टि से किसी भी प्रकार की विकलांगता का प्रतिशत 40 प्रतिशत से ज्यादा हो तो वह व्यक्ति विकलांग है। यह मापदंड सभी सातों तरह की विकलांगता पर लागू होते हैं। अब जरा यह भी देखते चलें कि भारत में ऐसे कितने लोग हैं जो विकलांग हैं। राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण के 58वें चक्र के अनुसार देश में लगभग 1 करोड़ 85 लाख लोग विकलांगता से ग्रसित है| हाल ही में आये जनगणना(2011) के आंकड़े बताते हैं कि देश में विकलांगों की संख्या 2 करोड़ 68 लाख 10 हजार 557 है। हालाँकि हम सभी जानते हैं कि यह संख्या बहुत  ही कम है|  क्योंकि यदि विश्व स्वास्थ्य संगठन की उस दलील को मानें जिसमें यह माना गया है कि  हर जनसंख्या के 15 फीसदी विकलांग होते हैं| इसके अनुसार देश में लगभग 15 करोड़ लोग विकलांग हैं| यानी यह एक बड़ी संख्या है जिसे हल्के में नहीं लिया जा सकता हैं।

बहरहाल हमने अभी तक मतदान के अधिकार और विकलांगता को तो समझ लिया परन्तु यह भी समझने की कोशिश करते हैं कि एक व्यक्ति तभी बेहतर तरीके से मतदान कर सकता है जबकि उसके पास सूचनाएं हों। यह सूचना प्रत्याशी के विषय में, उसके दल के विषय में, चुनाव की पूरी प्रक्रिया आदि के विषय में होनी चाहिए। यानी जब से सूचनाएं निर्बाध रूप से मिलेंगी तब ही व्यक्ति इनको पाकर अपना एक मानस (राय) बनायेगा और फिर मतदान करेगा। अब ज़रा हम इस सूचना के तौर-तरीकों पर गौर करें। क्या चुनाव आयोग से मिलने वाली सूचनाएं /समस्त दलों से मिलने वाली सूचनायें, प्रभावितों के शपथ पत्रों के पत्रों की सूचना या समय-समय पर चुनाव आयोग द्वारा जारी सूचनायें इस प्रारूप में होती हैं कि वे सभी तरह की विकलांगता से प्रभावित व्यक्तियों को उनके सुविधानुरूप प्रारूप में उपलब्ध हो पाए। जवाब है नहीं। यानी उन व्यक्तियों के लिए वे मौके ही उपलब्ध नहीं कराये हैं  जिससे वे अपनी राय बना सकें। यह चूक राजनीतिक दलों की ओर से भी दिखाई देती है क्योंकि न तो उनके घोषणा पत्रों में यह मुद्दा दिखता है और ना ही उन्होंने अपने प्रत्याशियों की प्रचार सामग्री भी इस अनुरूप तैयार कराई है कि वे इन मतदाताओं तक भी पहुँच सकें| केवल आम आदमी पार्टी को छोड़ दें तो किसी ने भी अपना घोषणा पत्र ब्रेल लिपि में प्रकाशित नहीं कराया है| यहां  पर मीडिया भी चूकता दिखाई देता है क्योंकि  इसके चुनाव पूर्व से लेकर बाद तक के बौद्धिक विमर्श में न तो यह विकलांग  मतदाता हैं, न उनके मुद्दे हैं और न ही उनकी राय बनाने के लिए इस रूप में उनके चैनल या अखबारों में जानकारियाँ हैं कि वे उन्हें सूचना के तौर पर परिपक्व कर सकें|

 

अब जरा इस समस्या के तीसरे पहलू पर भी गौर करते हैं यानी यह व्यक्ति मतदान केन्द्र तक पहुंचे कैसे? क्या इनके मतदान केन्द्र तक पहुंचने के लिए पर्याप्त इंतजाम किये जाते हैं यानी कि इनकी सूची बनाकर इन्हें घरों से मतदान केन्द्र तक लाने-ले जाने की सुविधा उपलब्ध कराई जाती है। क्या मतदान केन्द्र में अस्थाई रैम्प (स्थाई न होने की स्थिति में) की सुविधा उपलब्ध कराई जाती है। क्या ईवीएम को इनके अनुसार निर्धारित उंचाई पर रखा जाता है? क्या ईवीएम में इन व्यक्तियों के लिऐ हर प्रत्याशी के नाम के सामने संकेत आधारित व्यवस्था होती है? इन सभी का जवाब है, नहीं!!  क्या इन मतदाताओं के लिये चलित मतदान केन्द्रों की व्यवस्था नहीं कराई जाती है? क्या मानसिक रूप से विकलांग व्यक्तियों के लिए कोई ईवीएम ऐसी तैयार की जाती है क्या जिससे ये लोग संकेतों को समझ कर वोट कर सकें। इन सबसे इतर मतदान कराने गये अधिकारी/कर्मचारियों का प्रशिक्षण उस तरह कराया जाता है कि उन्हें इस तरह के व्यक्तियों के साथ कैसे पेश आना है या वे उनकी जरूरत के मुताबिक अपने आपको ढाल सकें। उपरोक्त  सभी का जवाब नहीं में मिलता है। दो विकलांग कर्मचारियों ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि उनके लिए तक केंद्र में कोई अलग से सुविधा नहीं होती है, मतदाताओं की तो बात ही अलग है|

अब सवाल यह उठता है कि क्या इन मतदाताओं के लिये कुछ भी नहीं किया गया? इसका जवाब है हां। वर्ष 2004 में डिसेबिलिटी राईट्स ग्रुप ने इस आशय का एक पत्र माननीय उच्चतम न्यायालय को लिखा और न्यायालय ने इसे जनहित याचिका में परिवर्तित करते हुए एक व्यापक आदेश चुनाव आयोग को दिया। इस आदेश में चुनाव आयोग ने विकलांग व्यक्तियों की मतदान केन्द्रों तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए लकड़ी के रैम्प, ईवीएम में लिखी जानकारी को ब्रेल में लिखने, विकलांग व्यक्तियों के लिए अलग से कतारें और विकलांगता से ग्रसित व्यक्तियों के लिए विशेष प्रावधान आदि करना प्रमुख थे। उसके अलावा माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह भी आदेशित  किया कि इस आशय का उपयुक्त प्रचार-प्रसार प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से किया जाये।

चुनाव आयोग ने 2005 में इस आदेश को सभी राज्य सरकारों और केन्द्र शासित प्रदेश सरकारों को लिखा। अफसोस कि अभी तक किसी भी राज्य में और स्वयं चुनाव आयोग ने भी इन आदेशों के परिपालन में कोई खास हाथ-पैर नहीं मारे हैं। मध्यप्रदेश के हाल देखें तो यहाँ पर ईवीएम मशीन में न तो ब्रेल में ही कुछ लिखा है और न ही बहरे और न बोल सकने वाले मतदाताओं के लिए कोई सांकेतिक तरीके से ही व्यवस्था है| अब जरा उस संस्थान की तैयारी भी जान लें जिसे विकलांगो के इस मताधिकार को सभी जगह सुनिश्चित कराना है| विकलांग अधिकारों के लिए लड़ाई लडऩे वाले डॉ. सत्येन्द्र सिंह ने सूचना के अधिकार के तहत विकलांग मतदाताओं के संबंध में राष्ट्रीय चुनाव आयोग से मांगी तो आयोग के जवाब चौंकाने वाले थे। अव्वल तो यही कि राष्ट्रीय चुनाव आयोग के पास देश के विकलांग मतदाताओं के बारे में कोई डाटा ही नही है। आयोग ने अपनी वेबसाईट ऐसी नहीं बनाई है जिसे कि नेत्रहीन भी देख सकें| आरटीआई से प्राप्त जानकारी का खुलासा करते हुए उन्होंने कहा कि उच्चतम न्यायालय ने 2004 में विकलांग मतदाताओं को जागरूक करने के लिए टीवी एवं अखबार के माध्यम से कैंपेन चलाने के निर्देश दिये थे। प्राप्त जानकारी के तहत आयोग ने अभी तक ऐसे कोई कदम नहीं उठाये हैं। आयोग ने विकलांगता के क्षेत्र में कार्य करने वाले किसी एनजीओ से भी विकलांग मतदाताओं की भागीदारी सुनिश्चत करने के लिए भी कोई संपर्क नहीं किया| हालाँकि कुछ एनजीओ ने अपने स्तर पर यह किया है| होशंगाबाद जिले के सोहागपुर में काम कर रही दलित संघ संस्था ने विधान सभा चुनावों में न् केवल विकलांग मतदाताओं को जागरूक किया बल्कि उन्हें ईवीएम आदि से भी परिचित कराया| सचिव रतन उमरे कहते हैं कि जब तक इन मशीनों में ब्रेल नहीं आती है तब तक को यह लोग अपना मतदान बेहतर तरीके से कर सकें|

ऊपर की पूरी कवायद को देखकर हम कल्पना कर सकते हैं कि तंत्र विकलांग व्यक्तियों के मताधिकार को लेकर किस हद तक संवेदनशील हैं| यही नहीं “सेंटर फॉर इन्टरनेट एंड सोसाइटी” के द्वारा 41 वेबसाईट का इस नजरिये के साथ अध्ययन किया कि इनमें से कितनी वेबसाईट ऐसी हैं जिन तक विकलांग व्यक्तियों की पहुँच हो सकती है| इनमें से 39 वेबसाईट ऐसी सामने आईं जिन्हें विकलाग व्यक्ति एक्सेस नहीं कर सकते हैं और इनमें राष्ट्रीय चुनाव  आयोग से लेकर संसद तक की वेबसाईट तक शामिल हैं| भोपाल में विकलांग व्यक्तियों के साथ काम कर रही संस्था आरूषि के निदेशक अनिल मुदगल कहते हैं कि  यह पूरी तरह से एक बड़ी संख्या और एक बड़े समुदाय का बहिष्कार कर देने वाली प्रक्रिया है। यह गंभीर मुद्दा बहुत ही असंवेदनशीलता के साथ देखा जाता है| आरूषि की पहल पर आयोग ने प्रदेश में मतदान केन्द्रों को विकलांगों के लिहाज से सुविधाजनक बनाने हेतु दिशा  निर्देश तो भिजा दिए हैं लेकिन यह महज एक आदेश ही है, इससे ज्यादा कुछ नहीं है और इससे ज्यादा से ज्यादा रैम्प बन सकते हैं लेकिन दृष्टि बाधित बच्चों के लिए ईवीएम मशीन में ब्रेल संकेत तो नहीं ही हैं , ऐसे में उनके साथ जाने वाला व्यक्ति उनके लिए मतदान करता है और इससे मतदान की गोपनीयता भंग होती है|

वहीं विकलांगों के साथ काम कर रही साईट सेवर्स नाम की संस्था की क्षेत्रीय निदेशक, अर्चना भम्बल कहती हैं कि विकलांग व्यक्तियों के लिहाज से इस  पूरी प्रक्रिया को और समावेशित करने की आवश्यकता है| हम दृष्टि बाधित लोगों के साथ काम करते हैं और उनके लिए यह प्रक्रिया तो बहुत ही कष्टकारी है| उनके लिए ब्रेल लिपि में कोई संकेत नहीं है| इन लोगों के मतदाता कार्ड तो बनते हैं लेकिन उन्हें पता नहीं है कि उनमें क्या लिखा है, क्योंकि वो ब्रेल में नहीं हैं, यही हाल मतदाता सूची का है| उन्होंने कहा कि मुझे लगता है कि दिशानिर्देशों और प्रावधानों के साथ-साथ जागरूकता व संवेदनशीलता भी विकसित करने की बहुत आवश्यकता है ताकि हम इन व्यक्तियों के लिए इस प्रक्रिया को और समानजनक बना सकें|

विकलांग व्यक्तियों को इस पूरी मतदान प्रक्रिया में शामिल करना यानी केवल मतदान केन्द्रों में किया जाने वाला अधोसंरचनात्मक विकास नहीं है बल्कि यह उन्हें समावेशित करने की ईमानदार पहल की आवश्यकता है| इन मतदाताओं को लेकर की जा रही यह चूक सभी स्तरों पर है | यदि हमे सही मायनों में अपने लोकतंत्र को मजबूत करना है और चुनावी प्रक्रिया को और सुदृढ करना होगा और समाज के हर एक तबके को उसमें समावेशित करने के लिए अपनी तैयारी करनी होगी|

Document Type : Article
Document ID : AHRC-ART-031-2014-HI
Countries : India,