INDIA: टी.बी. पीडि़त बच्ची की प्रधानमन्त्री को एक चिट्ठी

पन्ना जिले की तीन साढ़े तीन साल की पार्वती अपनी बीमारी के बारे में यदि सीधे प्रधानमन्त्री को लिख पाती तो शायद इस खत का मजमून कुछ और ही होता | शायद हम उसे पढ़ने की हिम्मत भी नहीं कर पाते। बहरहाल इस पत्र से टी.बी. के उपचार की वास्तविकता और नीतिगत चूक सामने आ ही जाती है। इस गंभीर स्वास्थ्य समस्या पर आलेख|

मैं हीरों की खदान के लिए मशहूर मध्यप्रदेश के पन्ना जिले के पन्ना विकासखंड के माझा गांव की साढ़े तीन साल की पार्वती हूँ। अपने तीन भाई बहन और पत्थर की खदानों में काम करने वाले मम्मी पापा के साथ मैं एक कमरे के घर में रहती हूँ। मुझे वही सूखा रोग (कुपोषण) हो गया है, जिसे आपने 2 साल पहले हंगामा रिपोर्ट जारी करते हुए राष्ट्रीय शर्मबताया था। सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय द्वारा 2012 में जारी रिपोर्ट  के अनुसार भारत में लगभग आध्¨ बच्चे (48 फीसदी) मेरे जैसे (कुप¨षित) हैं। ऐसे ही राष्ट्रीय पोषण  संस्थान के आंकड़ों  की मानें तो हमारे मध्यप्रदेश में भी लगभग 52 लाख बच्चे मेरे जैसे हैं और इनमें से भी 8.8 लाख बच्चे गंभीर स्तर के कुप¨षित हैं।

अंकल, आप तो जानते ही हैं कि कुप¨षण और टीबी का गहरा रिश्ता है। और यह सेल मेडिकेटेड इम्यूनिटी को प्रभावित करता है, जिसकी टीबी से निपटने में महत्वपूर्ण भूमिका है। हम जैसे जो कुपोषित बच्चे हैं उन्हें टी.बी. होने का जोखिम कई गुना बढ़ जाता है। अंततः मुझे भी टीबी हो गई। वैसे मध्यप्रदेश में अप्रैल 2013 से ही प्रत्येक कुपोषित बच्चे की टी.बी. की जांच शुरू की गई है। अभी भी इस कठिन काम की जांच के पुराने ही तरीके चल रहे हैं। विदेशों  में कोई जीन एक्सपर्ट नाम की जांच चलती है लेकिन हमारे यहां इसे अभी तक वह लागू नहीं किया है।

मुझे जिला टीबी अधिकारी डॉक्टर सुधाकर पांडे अंकल ने मेरे वजन के आधार मुझे टी.बी. की दवा दी। मैं 9 किलो की हूं तो मुझे वैसी दवा मिली। यहीं से मुझे पता चला कि संशोधित राष्ट्रीय तपेदिक कार्यक्रम (आरएनटीसीपी) में बच्चों  की टी.बी. की दवा तो 6-30 किलो वजन के लिए ही है। तो क्या उससे कम वजन के बच्चों के लिए क्या दवा नहीं है? यानि या तो उन्हें गलत दवा मिलेगी या वे छूट जाएंगे।

डॉ. अंकल ने मां को मेरी टी.बी. की दवा देते समय कहा था कि पर्याप्त पोषण  न होने से इन दवाओं का असर कम हो जाता है इसलिए इसे खूब खिलाना पिलाना। पर कैसे? हमारे पास तो दो वक्त के खाने की गुंजाइश नहीं है। खदान में माँ-पापा के लिए साल भर काम नहीं है। पंचायत से रो जगार गारंटी का काम कई बार मांगने पर भी नहीं मिलता है। चार-पांच सालों से सूखा भी पड़ रहा है। ऐसे में हमारे पापा क¨ हर साल पलायन करके शहर (दिल्ली, सूरत, हैदराबाद) जाना पड़ता है। राशन कार्ड न होने से राशनबाजार से मोल लेना पड़ता है। वैसे भी राज्य सरकार ने उच्चतम न्यायालय के आदेशों का उल्लंघन करते हुए अनाज का क¨टा 35 किलो से घटाकर 20 किलो कर दिया है। उनके अनुसार आपकी सरकार ने प्रदेश के बहुत ही कम परिवार गरीबी रेखा के नीचे माने हैं, इसलिए सबको पूरा करने के फेर में हिस्से का पूरा राशन नहीं दे पा रहे हैं। हमें आपकी सरकार द्वारा लाये खाद्य सुरक्षा कानून से बहुत उम्मीद थी कि इससे सभी को अनाज के साथ दाल तेल भी मिलेगा। लेकिन निराशा हाथ लगी। हालांकि आपने इसमें मोटे अनाज की व्यवस्था जरूर की है, लेकिन वह काफी नहीं है। यानी टीबी से जूझ रहे हम कुपोषित बच्चों और वयस्कों को अतिरिक्त पोषण कहीं से नहीं मिल पाता है? आंगनवाड़ी वाले कहते हैं टी.बी. हमारा विषय नहीं है और पोषण डॉ. अंकल विषय नहीं है। अंकल, तो आखिर हम टीबी ग्रस्त कुप¨षित बच्चे किस विभाग की जिम्मेदारी हैं? यहां पर तो आपके हस्तक्षेप की गुंजाइश बनती है जिससे कि टी.बी. और पोषण के अंर्तसंबंध पर अन्र्तविभागीय समन्वय हो पाए। पोषण के अभाव में टी.बी. से ही जूझते हुए कई बच्चे मौत के मुंह में चले जाते हैं। हमारे गांव के ही नरेश पिता राजेश की मौत हो गई थी। टीबी रोग सालाना कई हजार बच्चों की असमय मौत  का कारण है। यह बच्चों की मौत के 10 उच्च संभावना वाले कारकों में से एक है।

अंकल, बताइए कि मुझे कुपोषण  के कारण टी.बी. हुई या मुझे टी.बी. है, इसलिये मैं कुपोषित हो गई। मुझे टीबी क्यों हुई? कुछ लोग कहते हैं कि एक कमरे में 6-7 लोग रहने से। कुछ कहते हैं कि तुम्हारे यहां चूल्हे पर खाना बनता है (देश के तीन चौथाई घर ऐसे हैं- NFHS-3) तो धुएं के कारण हो जाती है। वैसे पलायन और टी.बी. का बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। वहां झुग्गियों में रहना होता है जो कि टी.बी. संक्रमण के केंद्र हैं। शायद पापा को भी वहीं से टीबी लगी होगी और उन्हीं से मुझे।

खैर, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता (दीदी) और मेरी मां ने 6 माह तक मुझे टी.बी. की दवा खिलवाई। पर मेरी टीबी खतम हुई या नहीं, यह भी किसी क¨ पता नहीं है। दीदी, अभी भी कहती है कि मेरा वजन नहीं बड़ रहा है। मुझे खांसी भी चल रही है। पर जांचें कैसे! मुझे किसी ने बताया कि आरएनटीसीपी में हर टी.बी. के मरीज को कोर्स  के बाद फालोअप कर एक आउटकम कार्ड जारी करना होता है, लेकिन वह भी मुझे नहीं दिया गया।

अंकल इतनी गंभीर स्थिति होने के बाद भी अभी तक आरएनटीसीपी में बच्चों की टी.बी. को अलग से मापने की क¨ई व्यवस्था क्यों नहीं है। अभी बच्चों को टी.बी. से बचाने के लिए एकमात्र टीका बीसीजी है, लेकिन वह हम अभी तक उसे भी सभी बच्चों को नहीं लगवा पाया है। वैसे भारत में किसी के भी लिए कोई स्पष्ट दिशा-र्निदेश नहीं है। आंगनवाडि़यों (0 से 6 वर्ष) और स्कूलों में (6 से 14 वर्ष) भी टी.बी. जांच का कोई भी कार्यक्रम नहीं है। टी.बी. की अनिवार्य जांच अभी तक स्कूली स्वास्थ्य कार्यक्रम का हिस्सा भी नहीं है।

अंकल, टी.बी. के मरीजों की दवा में अंतराल नहीं आना चाहिए नहीं तो मरीज को औषधि प्रतिरोध  (एमडीआर) टी.बी. होने का खतरा बढ़ जाता है। लेकिन उसके बाद भी आरएनटीसीपी से ही केंद्र से बच्चों की दवा की आपूर्ति नियमित नहीं की जा रही है। हमारे प्रदेश में ही वर्ष 2013 में (जनवरी से जून) तक बच्चों की दवा न आने से लगभग 7500 बच्चों को या तो टी.बी. की दवा नहीं मिल पाई या उसमें अंतराल आ गया। ऐसे में वयस्कों की दवा में से काट-काट कर अंदाजे से अवैज्ञानिक तरीके से बच्चों को दवा दी गई। यहां के अस्पताल में पिछले पखवाड़े से दवाई नहीं मिल रही है।

कई संगठनों ने समय-समय पर इस संबंध में आपसे अपील कि है कि आप टी.बी. के विषय में सन्देश जारी करें। भारत में प्रतिदिन 1000 लोग टी.बी. के कारण मर जाते हैं। इस बीमारी का पांचवा हिस्सा भारत से आता है। अर्थशास्त्री के नाते आप यह भी जानते होंगे कि टी.बी. के कारण पारिवारिक आमदनी में हर साल औसतन 20 प्रतिशत तक का नुकसान होता है। और इसकी देश पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष वार्षिक लागत 23.7 अरब डॉलर आती है। इस सबके बावजूद आपने टी.बी. को लेकर सन्देश अभी तक क्यों जारी नहीं किया?

वैसे आपके कार्यकाल में टी.बी. को लेकर उल्लेखनीय कार्य हुए हैं। वर्ष 2012 में भारत में टी.बी. को सूचनीय रोग घोषित किया गया है और टी.बी. जांच में गलत सेरालाजिकल परीक्षणों पर रोक लगी है। आपके ही कार्यकाल में जो बजट सन् 11-12 में 400 करोड़ था वह बढ़कर वर्ष 12-13 में 750 करोड़  हुआ। यह वृद्धि निश्चित ही टीबी के खिलाफ लड़ाई में ताकत देगी, वैसे स्वास्थ्य राज्य का विषय है और आप उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकते हैं, लेकिन आरएनटीसीपी जैसे कार्यक्रम तो राष्ट्रीय हैं। हालांकि 12वीं पंचवर्षीय योजना में सरकार का लक्ष्य निःशुल्क व उच्च कोटि के टी.बी. की पहचान व उपचार को सबकी पहुंच के भीतर लाना है। मैं अपना अधिकार समझ आपसे निवेदन करती हूं कि बच्चों को टी.बी. से मुक्ति दिलाने के लिए आप एक समन्वित चिकित्सा कार्यक्रम प्रारंभ करें और  पोषण भी इसी का अनिवार्य हिस्सा हो । मुझे आशा है कि हम बच्चों  के पक्ष में आप ऐसा अवश्य करेंगे।

आपकी ही
पार्वती
(रीच फेलोशिप के तहत किया गया अध्ययन)

Document Type : Article
Document ID : AHRC-ART-007-2014-HI
Countries : India,